ढूँढ रही हूँ खुद को टुकड़ों-किरचों में, ज़िन्दगी टूटकर यूँ बिखरी है। कुछ में घर-आँगन का अक्स है, जिन्हें सजाने में तमाम उम्र गुजार दी। सब हैं पेड़-पौधे,फुलवारी, यहाँ तक मुंडेर पर बैठे परिन्दे भी। दूर-दूर तक के रिश्ते नाते भी, और कर्मों के बही खाते भी। रौनकें भी हैं,तो […]