मगर दुखों से कौन सरोकार पसन्द करता है।
जीव कष्ट भोगकर भी,जीने की लालसा रखता है
दुख-अपमान के पीकर घूँट,चाहें हर रोज़ मरता है।
बुढ़ापे में फीके पड़ते गये,जीवन के सतरंगी रंग,
भजन भूल, दुख ही बाँटे,अपने जीवनसाथी संग।
सत्कर्म करें,ईश भजन भजै, दुख मिटै,कटै सब पाप,
वरना बुढ़ापा बुरी बीमारी, बेटा बन बैठता बाप।
सुख दुख कर्मों पर आधारित,गीता ज्ञान कराती है,
चक्षु हटा दिव्य ज्ञान से,नश्वर जग की याद सताती है।
जग में चमकने की इच्छा से,पाप की झोली भरता है,
माना कि इस मौत से हर एक जीव डरता है…
मानव तो कुछ स्वार्थों में,इस कदर अंधा हो गया है,
ज़रा बताओ, क्या आज उदय राक्षसों का हो गया है?
राक्षस वृत्ति यही है जिसमें,न त्याग-भाव का हो वास,
दुख पाने है तो ऐसे ही जीते रहो, शावाश बेटे शावाश!
ईर्ष्या दूर भागे मन से,ज्यों डर भागे सूरज से शबनम,
ऐसी रीति चले प्रीति की,सब मिल गाएं इक सरगम।
ऐसे कर्म कराओ भगवन,ना दुख से होना पड़े दो-चार ,
भर दो करुणा,प्रीति हृदय में,भर दो शुद्ध दया विचार।
सौ वसंत देख चुका बूढ़ा भी ,जीने का सपना रखता है,
माना कि इस मौत से हर एक जीव डरता है…
#अतुल कुमार शर्मा
परिचय:अतुल कुमार शर्मा की जन्मतिथि-१४ सितम्बर १९८२ और जन्म स्थान-सम्भल(उत्तरप्रदेश)हैl आपका वर्तमान निवास सम्भल शहर के शिवाजी चौक में हैl आपने ३ विषयों में एम.ए.(अंग्रेजी,शिक्षाशास्त्र,
समाजशास्त्र)किया हैl साथ ही बी.एड.,विशिष्ट बी.टी.सी. और आई.जी.डी.की शिक्षा भी ली हैl निजी शाला(भवानीपुर) में आप प्रभारी प्रधानाध्यापक के रूप में कार्यरत हैंl सामाजिक क्षेत्र में एक संस्था में कोषाध्यक्ष हैं।आपको कविता लिखने का शौक हैl कई पत्रिकाओं में आपकी कविताओं को स्थान दिया गया है। एक समाचार-पत्र द्वारा आपको सम्मानित भी किया गया है। उपलब्धि यही है कि,मासिक पत्रिकाओं में निरंतर लेखन प्रकाशित होता रहता हैl आपके लेखन का उद्देश्य-सामाजिक बुराइयों को उजागर करना हैl
माना कि इस मौत से हर एक जीव डरता है,
मगर दुखों से कौन सरोकार पसन्द करता है।
जीव कष्ट भोगकर भी,जीने की लालसा रखता है
दुख-अपमान के पीकर घूँट,चाहें हर रोज़ मरता है।
बुढ़ापे में फीके पड़ते गये,जीवन के सतरंगी रंग,
भजन भूल, दुख ही बाँटे,अपने जीवनसाथी संग।
सत्कर्म करें,ईश भजन भजै, दुख मिटै,कटै सब पाप,
वरना बुढ़ापा बुरी बीमारी, बेटा बन बैठता बाप।
सुख दुख कर्मों पर आधारित,गीता ज्ञान कराती है,
चक्षु हटा दिव्य ज्ञान से,नश्वर जग की याद सताती है।
जग में चमकने की इच्छा से,पाप की झोली भरता है,
माना कि इस मौत से हर एक जीव डरता है…
मानव तो कुछ स्वार्थों में,इस कदर अंधा हो गया है,
ज़रा बताओ, क्या आज उदय राक्षसों का हो गया है?
राक्षस वृत्ति यही है जिसमें,न त्याग-भाव का हो वास,
दुख पाने है तो ऐसे ही जीते रहो, शावाश बेटे शावाश!
ईर्ष्या दूर भागे मन से,ज्यों डर भागे सूरज से शबनम,
ऐसी रीति चले प्रीति की,सब मिल गाएं इक सरगम।
ऐसे कर्म कराओ भगवन,ना दुख से होना पड़े दो-चार ,
भर दो करुणा,प्रीति हृदय में,भर दो शुद्ध दया विचार।
सौ वसंत देख चुका बूढ़ा भी ,जीने का सपना रखता है,
माना कि इस मौत से हर एक जीव डरता है…
अतुल कुमार शर्मा सम्भल
सर जी, इस कविता में, व्याप्त त्रुटियों में सुधार करने का कष्ट करें। जो मैंने अब भेजी है, वही शुद्ध है। धन्यवाद