तर्क के आरोहण के बाद बनेगा हिन्दी राष्ट्रभाषा का सूर्य

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arpan jain
समग्र के रोष के बाद,सत्य की समालोचना के बाद,दक्षिण के विरोध के बाद,समस्त की सापेक्षता के बाद,स्वर के मुखर होने के बाद,क्रांति के सजग होने के बाद,दिनकर,भास्कर, चतुर्वेदी के त्याग के बाद, पंत,सुमन,मंगल,महादेवी के समर्पण के बाद भी कोई भाषा यदि राष्ट्रभाषा के गौरव का वरण नहीं कर पाई तो इसके पीछे राजनीतिक धृष्टता के सिवा कोई कारक तत्व दृष्टिगत नहीं होता है।
हाँ!,जब एक भाषा संपूर्ण राष्ट्र के आभामण्डल में उस पीले रंग की भांति सुशोभित है जो चक्र की पूर्णता को शोभायमान कर रहा है,उसके बाद भी ‘राजभाषा’ की संज्ञा देना न्यायसंगत नहीं लगता।
बहरहाल,हम पहले ये तो जानें  कि क्यों आवश्कता है राष्ट्रभाषा की ? जिस तरह एक राष्ट्र के निर्माण के साथ ही ध्वज को,पक्षी को,खेल को, पिता को,गीत को,गान को,चिन्ह तक को राष्ट्र के स्वाभिमान से जोड़कर संविधान सम्मत बनाने और संविधान की परिधि में लाने का कार्य किया गया है,तो फिर भाषा क्यों कर नहीं ? किसी भी राष्ट्र में जिस तरह राष्ट्रचिन्ह,राष्ट्रगान,राष्ट्रध्वज, राष्ट्रगीत,राष्ट्रीय पक्षी,राष्ट्रीय पशु की अवहेलना होने पर देशद्रोह का दोष लगता है, परन्तु भारत में हिन्दी के प्रति इस तरह का प्रेम राजनीतिक स्वार्थ के चलते राजनीति प्रेरित लोग नहीं दर्शा पाए,उसके पीछे मूल कारण में सत्तासीन राजनीतिक दल का दक्षिण का पारम्परिक ‘वोट बैंक’ टूटना भी है।
हाशिए पर आ चुकी बोलियाँ जब केन्द्रीय तौर पर एकीकृत होना चाहती हैं,तो उनकी आशा का रुख सदैव हिन्दी की ओर होता है,हिन्दी सभी बोलियों को स्व में समाहित करने का दंभ भी भरती है,  साथ ही उन बोलियों के मूल में संरक्षित भी होती है। इसी कारण समग्र राष्ट्र के चिन्तन और संवाद की केन्द्रीय भाषा हिन्दी ही रही है। विश्व के १७८ देशों की अपनी एक राष्ट्रभाषा है,जबकि इनमें से १०१ देश में एक से ज्यादा भाषाओं पर निर्भरता है और सबसे महत्वपूर्ण बात तो यह है कि एक छोटा-सा राष्ट्र है ‘फिजी गणराज्य’,जिसकी आबादी का कुल ३७ प्रतिशत हिस्सा ही हिन्दी बोलता है,पर उन्होंने अपनी राष्ट्रभाषा हिन्दी को घोषित कर रखा है,जबकि हिन्दुस्तान में ५० प्रतिशत से ज्यादा लोग हिन्दीभाषी होने के बावजूद भी केवल राजभाषा के तौर पर ही हिन्दी स्वीकारी गई है।
‘राजभाषा’ का मतलब साफ है कि केवल राजकार्यों की भाषा।
जब राजभाषा को संवैधानिक आलोक में देखें तो पता चलता है कि, ‘राजभाषा’ नामक भ्रम के सहारे सत्तासीन राजनीतिक दल ने अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर ली। उन्होंने दक्षिण के बागी स्वर को भी समेट लिया और देश को भी झुनझुना पकड़ा दिया।
राजभाषा बनाने के पीछे सन १९६७ में बापू के तर्क का हवाला दिया गया जिसमें बापू नें संवाद शैली में राष्ट्रभाषा को राजभाषा कहा था। शायद बापू का अभिप्राय राजकीय कार्यों के साथ राष्ट्र के स्वर से रहा हो,परन्तु तात्कालिन एकत्रित राजनीतिक ताकतों ने स्वयं के स्वार्थ के चलते बापू की लिखावट को ढाल बनाकर हिन्दी को ही हाशिए पर ला दिया।
देश के लगभग १० से अधिक राज्यों में बहुतायत में हिन्दी भाषी लोग रहते हैं,अनुमानित रुप से भारत में ४० फीसदी से ज़्यादा लोग हिन्दी भाषा बोलते हैं,किंतु दुर्भाग्य है क़ि हिन्दी को जो स्थान शासकीय तंत्र से भारत में मिलना चाहिए वो कृपापूर्वक दी जा रही खैरात है। हिन्दी का स्थान राष्ट्रभाषा का होना चाहिए न क़ि राजभाषा का,क्योंकि हिन्दी का अधिकार राष्ट्रभाषा का है। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी द्वारा बताए गए निम्नलिखित लक्षणों पर दृष्टि डाल लेना ही पर्याप्त रहेगा,जो उन्होंने एक ‘राजभाषा’ के लिए बताए थे-
(१) अमलदारों के लिए वह भाषा सरल होनी चाहिए।
(२) उस भाषा के द्वारा भारतवर्ष का आपसी धार्मिक, आर्थिक और राजनीतिक व्यवहार हो सकना चाहिए।
(३) यह जरूरी है कि भारतवर्ष के बहुत से लोग उस भाषा को बोलते हों।
(४) राष्ट्र के लिए वह भाषा आसान होनी चाहिए।
(५) उस भाषा का विचार करते समय किसी क्षणिक या अल्प स्थायी स्थिति पर जोर नहीं देना चाहिए।
इन लक्षणों पर हिन्दी भाषा खरी तो उतरी,किंतु राष्ट्रभाषा होना हिन्दी के लिए गौरव का विषय होगा।
अनुच्छेद ३४३ संघ की राजभाषा
संघ की राजभाषा हिंदी और लिपि देवनागरी होगी,संघ के अशासकीय प्रयोजनों के लिए प्रयोग होने वाले अंकों का रुप भारतीय अंकों का अंतर्राष्ट्रीय रुप होगा।
खंड (१) में किसी बात के होते हुए भी,इस संविधान के प्रारंभ से पंद्रह वर्ष की अवधि तक संघ के उन सभी शासकीय प्रयोजनों के लिए अंग्रेजी भाषा का प्रयोग किया जाता रहेगा, जिनके लिए उसका ऐसे प्रारंभ से ठीक पहले प्रयोग किया जा रहा था,परन्तु राष्ट्रपति उक्त अवधि के दौरान,आदेश द्वारा, संघ के शासकीय प्रयोजनों में से किसी के लिए अंग्रेजी भाषा के अतिरिक्त हिंदी भाषा का और भारतीय अंकों के अंतर्राष्ट्रीय रुप के अतिरिक्त देवनागरी रुप का प्रयोग प्राधिकृत कर सकेगा।
इस अनुच्छेद में किसी बात के होते हुए भी,संसद उक्त पन्द्रह वर्ष की अवधि के पश्चात विधि द्वारा
(क) अंग्रेजी भाषा का या
(ख) अंकों के देवनागरी रूप का,
ऐसे प्रयोजनों के लिए प्रयोग उपबंधित कर सकेगी,जो ऐसी विधि में विनिर्दिष्ट किए जाएं।
अनुच्छेद ३५१ हिंदी भाषा के विकास के लिए निदेश
संघ का यह कर्तव्य होगा कि,  वह हिंदी भाषा का प्रसार बढ़ाए,उसका विकास करे जिससे वह भारत की सामासिक संस्कृति के सभी तत्वों की अभिव्यक्ति का माध्यम बन सके और उसकी प्रकृति में हस्तक्षेप किए बिना हिंदुस्तानी में और आठवीं अनुसूची में विनिर्दिष्ट भारत की अन्य भाषाओं में प्रयुक्त रूप,शैली और पदों को आत्मसात करते हुए और जहां आवश्यक या वांछनीय हो वहां उसके शब्द-भंडार के लिए मुख्यतः संस्कृत से और गौणतः अन्य भाषाओं से शब्द ग्रहण करते हुए उसकी समृद्धि सुनिश्चित करें।
हिन्दी के सम्मान की संवैधानिक लड़ाई देशभर में विगत ५ दशक से ज़्यादा समय से जारी है। हर भाषाप्रेमी अपने-अपने स्तर पर भाषा के सम्मान की लड़ाई लड़ रहा है।
हाँ! हम भारतवंशियों को कभी आवश्यकता महसूस नहीं हुई राष्ट्रभाषा की,परन्तु जब देश के अन्दर ही देश की राजभाषा या हिन्दी भाषा का अपमान हो तब मन का उत्तेजित होना स्वाभाविक है। जैसे राष्ट्र के सर्वोच्च न्याय मंदिर ने एक आदेश पारित किया है कि, न्यायालय में निकलने वाले समस्त न्याय दृष्टान्त व न्यायिक फैसलों की प्रथम प्रति हिन्दी में होगी,परन्तु ९० प्रतिशत इसी आदेश की अवहेलना न्याय मंदिर में होकर सभी निर्णय की प्रतियाँ अंग्रेजी में दी जाती है। यदि प्रति हिन्दी में मांगी जाए तो अतिरिक्त शुल्क जमा करवाया जाता है। वैसे ही देश के कुछ राज्यों में हिन्दीभाषी होना ही पीड़ादायक होने लगा है,जैसे कर्नाटक सहित तमिलनाडु, महाराष्ट्र आदि,वहीं हिन्दीभाषियों के साथ हो रहा दुर्व्यवहार भी सार्वभौमिक है। साथ ही कई जगहों पर तो हिन्दी साहित्यकारों को प्रताड़ित भी किया जाता है। ऐसी परिस्थिति में कानून सम्मत भाषा अधिकार होना यानी ‘राष्ट्रभाषा’ का होना सबसे महत्वपूर्ण है। कमोबेश हिन्दी की वर्तमान स्थिति को देखकर सत्ता से आशा ही की जा सकती है कि,वे देश की सांस्कृतिक विरासत को सहेजने के लिए,संस्कार सिंचन के तारतम्य में हिन्दी को राष्ट्रभाषा घोषित कर इसे अनिवार्य शिक्षा में शामिल करें। इन्हीं सब तर्कों के संप्रेषण व आरोहण के बाद ही हिन्दी को राष्ट्रभाषा का सूर्य मिलेगा और देश की सबसे बड़ी ताकत उसकी वैदिक संस्कृति व पुरातात्विक महत्व के साथ-साथ राष्ट्रप्रेम जीवित रहेगा ।

#डॉ.अर्पण जैन ‘अविचल’

परिचय : डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’ इन्दौर (म.प्र.) से खबर हलचल न्यूज के सम्पादक हैं, और पत्रकार होने के साथ-साथ शायर और स्तंभकार भी हैं। श्री जैन ने आंचलिक पत्रकारों पर ‘मेरे आंचलिक पत्रकार’ एवं साझा काव्य संग्रह ‘मातृभाषा एक युगमंच’ आदि पुस्तक भी लिखी है। अविचल ने अपनी कविताओं के माध्यम से समाज में स्त्री की पीड़ा, परिवेश का साहस और व्यवस्थाओं के खिलाफ तंज़ को बखूबी उकेरा है। इन्होंने आलेखों में ज़्यादातर पत्रकारिता का आधार आंचलिक पत्रकारिता को ही ज़्यादा लिखा है। यह मध्यप्रदेश के धार जिले की कुक्षी तहसील में पले-बढ़े और इंदौर को अपना कर्म क्षेत्र बनाया है। बेचलर ऑफ इंजीनियरिंग (कम्प्यूटर  साइंस) करने के बाद एमबीए और एम.जे.की डिग्री हासिल की एवं ‘भारतीय पत्रकारिता और वैश्विक चुनौतियों’ पर शोध किया है। कई पत्रकार संगठनों में राष्ट्रीय स्तर की ज़िम्मेदारियों से नवाज़े जा चुके अर्पण जैन ‘अविचल’ भारत के २१ राज्यों में अपनी टीम का संचालन कर रहे हैं। पत्रकारों के लिए बनाया गया भारत का पहला सोशल नेटवर्क और पत्रकारिता का विकीपीडिया (www.IndianReporters.com) भी जैन द्वारा ही संचालित किया जा रहा है।

 

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संस्थापक एवं सम्पादक

डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’

आपका जन्म 29 अप्रैल 1989 को सेंधवा, मध्यप्रदेश में पिता श्री सुरेश जैन व माता श्रीमती शोभा जैन के घर हुआ। आपका पैतृक घर धार जिले की कुक्षी तहसील में है। आप कम्प्यूटर साइंस विषय से बैचलर ऑफ़ इंजीनियरिंग (बीई-कम्प्यूटर साइंस) में स्नातक होने के साथ आपने एमबीए किया तथा एम.जे. एम सी की पढ़ाई भी की। उसके बाद ‘भारतीय पत्रकारिता और वैश्विक चुनौतियाँ’ विषय पर अपना शोध कार्य करके पीएचडी की उपाधि प्राप्त की। आपने अब तक 8 से अधिक पुस्तकों का लेखन किया है, जिसमें से 2 पुस्तकें पत्रकारिता के विद्यार्थियों के लिए उपलब्ध हैं। मातृभाषा उन्नयन संस्थान के राष्ट्रीय अध्यक्ष व मातृभाषा डॉट कॉम, साहित्यग्राम पत्रिका के संपादक डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’ मध्य प्रदेश ही नहीं अपितु देशभर में हिन्दी भाषा के प्रचार, प्रसार और विस्तार के लिए निरंतर कार्यरत हैं। डॉ. अर्पण जैन ने 21 लाख से अधिक लोगों के हस्ताक्षर हिन्दी में परिवर्तित करवाए, जिसके कारण उन्हें वर्ल्ड बुक ऑफ़ रिकॉर्डस, लन्दन द्वारा विश्व कीर्तिमान प्रदान किया गया। इसके अलावा आप सॉफ़्टवेयर कम्पनी सेन्स टेक्नोलॉजीस के सीईओ हैं और ख़बर हलचल न्यूज़ के संस्थापक व प्रधान संपादक हैं। हॉल ही में साहित्य अकादमी, मध्य प्रदेश शासन संस्कृति परिषद्, संस्कृति विभाग द्वारा डॉ. अर्पण जैन 'अविचल' को वर्ष 2020 के लिए फ़ेसबुक/ब्लॉग/नेट (पेज) हेतु अखिल भारतीय नारद मुनि पुरस्कार से अलंकृत किया गया है।