बिना पहचान-पत्र न जाने,
यंत्र उँगली को कहाँ पहचाने;
तंत्र से जुड़ा हुआ जब जाने,
तभी दरवाज़ा खोलना जाने।
करना पंजीकरण प्रायः होता,
लेना चिप वाला कार्ड भी होता;
उसी से पात्र संस्था जुड़ता,
सभी सुविधाएँ भोग कर पाता ।
तंत्र सब विश्व-तंत्र विच होते,
यंत्र पर उनके अलहदा होते;
किए व्यवहार क्षुद्र वे होते,
सूक्ष्म उतने कहाँ रहे होते।
जुड़े हैं अभी कहाँ सब उनसे,
कहाँ वाक़िफ़ हैं सभी की रग से;
रंग औ ढंग कहाँ उर देखे,
सुर कहाँ सृष्टि की नब्ज़ समझे।
आत्म परमात्म जब समझ लेगी,
झाँक हर जीव को तुरत लेगी;
लगेंगे सब ‘मधु’ हृदय जाने,
द्वार खुल जाएँगे प्रकृति जाने।
#गोपाल बघेल ‘मधु’
परिचय : ५००० से अधिक मौलिक रचनाएँ रच चुके गोपाल बघेल ‘मधु’ सिर्फ हिन्दी ही नहीं,ब्रज,बंगला,उर्दू और अंग्रेजी भाषा में भी लिखते हैं। आप अखिल विश्व हिन्दी समिति के अध्यक्ष होने के साथ ही हिन्दी साहित्य सभा से भी जुड़े हुए हैं। आप टोरोंटो (ओंटारियो,कनाडा)में बसे हुए हैं। जुलाई १९४७ में मथुरा(उ.प्र.)में जन्म लेने वाले श्री बघेल एनआईटी (दुर्गापुर,प.बंगाल) से १९७० में यान्त्रिक अभियान्त्रिकी व एआईएमए के साथ ही दिल्ली से १९७८ में प्रबन्ध शास्त्र आदि कर चुके हैं। भारतीय काग़ज़ उद्योग में २७ वर्ष तक अभियंत्रण,प्रबंधन,महाप्रबंधन व व्यापार करने के बाद टोरोंटो में १९९७ से रहते हुए आयात-निर्यात में सक्रिय हैं। लेखनी अधिकतर आध्यात्मिक प्रबन्ध आदि पर चलती है। प्रमुख रचनाओं में-आनन्द अनुभूति, मधुगीति,आनन्द गंगा व आनन्द सुधा आदि विशहै। नारायणी साहित्य अकादमी(नई दिल्ली)और चेतना साहित्य सभा (लखनऊ)के अतिरिक्त अनेक संस्थाओं से सम्मानित हो चुके हैं।