(बाल दिवस विशेष)
याद आते हैं,दिन पुराने,
बचपन के वो खेल-तमाशे
थे कितने वे पल सुहाने।
लुका-छिपी खेलते-खेलते,
खो-खो में खो जानाl
गिल्ली हो या गेंद लपकने
जी भर दौड़ लगाना।
लँगड़ी,पिट्ठू या कबड्डी,
रोज ही मन ललचाते थेl
इतने पर भी लगे अधूरा,तो
दंड-बैठक खूब लगाते थे।
जाने कितनी है यादें,जो,
भूली-बिसरी-सी लगती हैं।
पाठशाला से मिली जो शिक्षा,
आज नहीं बिसराती है।
जीवन में पल-पल,अब भी,
काम वही आती है।
बीता समय,बीती बातें,
याद बहुत आती हैं।
दिखते नहीं अब खेल पुराने,
बदल गए हैं रिश्तों के मानेl
मस्ती के दिन अब हुए हवा,
जीवन के ये कैसे ताने-बाने।
परियों की वे कथाएं,
दादी-नानी जो सुनाती थी।
छिपे मर्म उनमें जो रहते,
अंतस में चिपकाती थीं।
ज्ञानी-ध्यानी,वीर-महापुरुषों से,
नाना-दादा मिलवाते थे।
बातों ही बातों में,वे
जीवन का पाठ पढ़ाते थे।
बीता समय और बीती बातें,
अब याद बहुत आतीं हैं।
हमने जो देखा-समझा,
साथ बड़ों के रहकरl
सिखा न सकते अब हम
बच्चों को सब कुछ भी देकर।
नया जमाना,नई बातें,
कम ही हर्षाती हैं।
रह-रहकर बीते दिनों की,
याद बहुत आती है।
#देवेन्द्र सोनी