देखी एक तस्वीर तो ,
याद आया मुझको मेरा बचपन।
मन मचल उठा मेरा यूं ही,
देखा जब मैंने बीता दर्पण।
ना जागने की जल्दी थी ,
ना थी सोने की चिंता,
अपनी मर्जी के मालिक थे ,
ना थी कोई फिकर ना कोई चिंता।
वो प्यार से जगाना मां का ,
वो सिर सहलाना मां का।
वो गोदी में उठाना मां का
वो आंचल में छिपाना मां का।
वो माखन रोटी नानी की ,
वो दूध मलाई मासी की।
वो कथा कहानी रानी की।
वो मक्के की रोटी पानी की,
वो बाबा जी की टॉफी सारी,
वो दादी जी की बातें न्यारी।
वो चाचा जी की घुड़सवारी,
वो बुआ जी की गोदी प्यारी।
वो मेलों में पैदल जाना,
वो मिट्टी के खिलौने लाना ।
वो झूले के लिए मचल जाना,
वो बेवजह का रोना धोना।
वो गुड्डे गुड़िया के खेल सजीले,
वो टेसू झेंझी के ब्याह रंगीले।
वो मीठे आम रसीले,
वो सरसों के खेत पीले।
वो गाएं बकरी भैंस चराना,
वो नदी में डुबकी लगाना।
यारों संग कंचे का खेल सुहाना,
वो मिलकर शोर मचाना ।
वो खाली डिब्बे की ढोल बजाना,
वो सखियों संग नाचना गाना।
वो फूलों के गहने बनाना,
वो दिन भर तितली सा उड़ना।
वो पगडंडियों पर चलना,
वो गिरना और संभलना।
वो साईकिल का पहिया चलना,
वो मास्टर जी का मुर्गा बनाना।
वो चूरन खट्टा मीठा सा,
वो इमली का स्वाद रसीला सा।
वो पांच पैसा चांदी सा,
वो खेल कबड्डी खो खो का।
खाली जेबों में खुशियों की थी ढेरी,
यादों ने आज गलियों में लगाई फेरी।
आज बस एक अभिलाषा है मेरी,
हे प्रभु कर दीजिए इसको पूरी।
काश फिर से मिल जाए बचपन,
बेफिक्री की रातें वो मस्ती भरे दिन।
जब चाहूं तब रात करूं जब चाहूं दिन
यारों की टोली संग धूम मचाऊं हर दिन।
चिंताओं की चिता जलाऊं मैं,
आज फिर से बचपन जी जाऊं मैं।
छोड़ कर दुनियादारी सब मैं,
खुद में ही खो जाऊं मैं।
सपना सिंह
औरैया(उत्तरप्रदेश)