परिचर्चा- साहित्य में महिलाओं की सकारात्मक भूमिका

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परिचर्चा संयोजक-
डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’

वर्तमान समय में देशभर में साहित्य का बोलबाला है। ऐसे दौर में महिला साहित्यकारों से समाज अधिक अपेक्षा करता भी है क्योंकि सृजन का पहला अधिकार आधी आबादी का रहा है। साहित्य जगत में महिलाओं ने अपनी भूमिका से सकारात्मकता का प्रसार किया है।
इस कड़ी में मातृभाषा डॉट कॉम द्वारा साहित्य जगत में सकारात्मक भूमिका के लिए महिलाओं की भूमिका विषय पर आयोजित परिचर्चा में विद्वतजनों ने अपने विचार रखे।

तुलनात्मक भाषा एवं संस्कृति अध्ययन शाला, देवी अहिल्या विश्वविद्यालय, इंदौर की निदेशक एवं पूर्व प्राचार्य डॉ.पद्मासिंह का मानना है कि ‘रचनाकार स्त्री हो या पुरुष, लेखन को खांचे में नहीं बांटा जा सकता। साहित्य अपने समय को रेखांकित करता है। रचनाकार अपने परिवेश और परिस्थियों का आंकलन अपनी विचारधारा और संस्कारों के आधार पर करता है। परम्पराओं और आधुनिकता में चुनाव लेखक का विवेक करता है। आज मीडिया और नई टेक्नालॉजी ने साहित्य के कई रूपों को सामने रख दिया है। संचार क्रांति और नवीन वैज्ञानिक प्रयोगों ने ज्ञान के असंख्य द्वार खोल दिए हैं। एक क्लिक में पूरा विश्व हमारे सामने आकर खड़ा हो सकता है। देश–दुनिया में घटित हर घटना प्रत्यक्ष देखी जा सकती है। पाश्चात्य संस्कृति ने भारतीय मानस को जिस तरह मोहाविष्ट किया है, इसका प्रत्यक्ष प्रभाव समाज पर देखा जा सकता है। यही सब साहित्य को भी प्रभावित कर रहा है। हमें विचार करना होगा कि भारतीय मूल्य और संस्कृति विकृत रूप में प्रस्तुत न हो। पश्चिमी संस्कृति की कर्मठता, समय बद्धता, देवाप्रेम, भाषा प्रेम, स्वाभिमान, राजनीति का आदर्श स्वरूप, सुव्यवस्थित कार्य प्रणाली का अनुसरण करने के स्थान पर हम केवल उपभोक्तावादी संस्कृति, टूटते परिवार, बिखरता दाम्पत्य, लिव इन रिलेशनशिप, प्रेम का विकृत स्वरूप, अनैतिक सम्बंध, यौन कुष्ठाएँ, हिंसक प्रवृतियाँ और मानसिक असन्तुलन से उपजी स्थितियों से आधुनिक समाज की तस्वीर बना लेते हैं। इन सबका प्रभाव साहित्य में भी देखा जा रहा है। एक काल्पनिक संसार में भटकता मन जिस अपनत्व की तलाश में भटकता है, वह उसे अतृप्ति के गहन अंधकार में ले जाकर पटक देता है। रिश्तों में ठंडापन है। शांति की तलाश में प्रेम, समर्पण, ममत्व और पारिवारिक सुख सब सपना बन गए हैं। आज हम भारतीय दर्शन, धर्म, ज्ञान-विज्ञान और अतीत के गौरव को विस्मृत कर क्षणवादी दर्शन की ओर भाग रहे हैं। आज न कोई आदर्श चिंतक हमारे समक्ष है, न कोई महान चरित्र नायक। बच्चा मोबाइल की स्क्रीन पर आँखें गढ़ाए बड़ा होता है। दादी–नानी की कहानियों और माँ की लोरियों की जगह कार्टून के पात्र उसकी चेतना पर इस कदर हावी रहते हैं कि कल्पनाशीलता के लिए जगह ही नहीं बचती। यही पीढ़ी हमारा भविष्य है, जिसे हम न संस्कार दे रहे, न सुखद भविष्य। ध्वंस शोषण, ब्लैक मेलिंग और अतिंक को ही शक्ति का पर्याय मानने वाली नई पीढ़ी के सामने साहित्यकार न कोई आदर्श प्रस्तुत कर रहे हैं, न उन्हें जीवन की सही राह दिखा रहे । पाश्चात्य संस्कृति की सारी कुरुपताओं को आधुनिकता और फ़ैशन के नाम पर अपना रहे हम किस समाज को गढ़ रहे हैं! इस पर गंभीरता से विचार करना चाहिए। तकनीकी विकास और वैश्विक प्रगति ने अंतहीन स्वप्नों को हवा दी है। आज व्यक्ति आत्मकेन्द्रित हो कर विवाह संस्था, परिवार, माता-पिता, पुत्र-पुत्री जैसे रिश्तों को बोझ समझने लगा। अविश्वास, कुंठा, आक्रोश, हिंसा और मूल्यहीनता से उपजे अविश्वसनीय समाज में हम अवसर तलाशते हैं और मौका मिलते ही मानवीय मूल्यों की हत्या कर देते हैं, यही हमारा राष्ट्रीय चरित्र बनने लगा है। न समाज में संतुवान है, न निजी सम्बंधों में आस्था शेष है। ऐसे में साहित्यकार के सामने एक गंभीर चुनौती है कि वह मरती हुई मानवता को अपनी आस्था की लेखनी से संजीवनी दे उत्कृष्ट साहित्य विकृतियों का चित्रण करने का नाम नहीं है। समाज में संतुलन बनाए रखने का दायित्व साहित्यकार का ही होता है । फेसबुक, व्हाट्सएप्प का सदुपयोग होना चाहिए। विज्ञापनों की चकाचौंध में रिश्तों की पवित्रता और मर्यादा दूषित न हो, साथ ही, भाषा विकृत न हो, यह भी ध्यान रखना होगा। आज युवा पीढ़ी फ़ैशन की अंधी दौड़ में रिश्तों को भी फ़ैशन की तरह इस्तेमाल करने लगी है। महानगरों में प्रेम और नैतिकता ने सारी सीमाएँ तोड़ दी हैं, स्त्री स्वातंत्र्य के नाम पर देह का इस्तेमाल सीढ़ी की तरह करना फ़ैशन बन गया है। नशे की लत, विलासिता पूर्ण जीवन जीने की चाह ने जिस पाप के गर्त में धकेल दिया है, वहाँ से निकलना आसान नहीं है। दैहिक सुखों की चाह ने हर जायज़–नाजायज़ तरीकों से धन कमाने के लिए मनुष्य को क्रूर और अपराधी बना दिया है। साहित्यकार विकृतियों को ही यदि अपनी रचना के केन्द्र में रखता है, तो वह अपने सामाजिक दायित्व का निर्वाह नहीं करता। साहित्यकार का दायित्व है कि वह भारतीय आदर्शों की स्थापना करने वाला साहित्य रचे और उन मूल्यों का समर्थन न करे, जो ’भारतीय आदर्शों’ की हत्या कर रहे हैं। आधुनिक स्त्री की परिभाषा ही बदल दी जाए तो हमारा आने वाला समाज कैसा होगा, इसकी कल्पना ही भय से सिहरा देती है। हमें अपने लेखन में अनैतिक सम्बंध, स्त्रीमुक्ति के नाम पर फूहड़ता और पाशविकता का समर्थन नहीं करना है। समस्याओं का चित्रण, स्वप्न दृश्य, काल्पनिक मनोभावु सूक्ष्म प्रेम दैहिक सम्बंधों की विकृतियों का चित्रण, साहित्य सृजन के नाम पर शब्दों की जुगाली है, जिससे साहित्य रचना का मूल उद्देश्य ही नष्ट हो जाता है।’

वामा साहित्य मंच की अध्यक्ष एवं वरिष्ठ लेखिका इन्दु पराशर जी के अनुसार ‘साहित्य एक महत्त्वपूर्ण क्षेत्र है, जो हमें जीवन के अनुभवों को अधिक गहराई से समझने और उनसे सीखने की स्थिति में लाता है। यह एक ऐसा क्षेत्र है, जो सभी वर्गों के लोगों के लिए खुला है, इसमें न केवल पुरुष साहित्यकार अपितु महिला साहित्यकार भी होते हैं। महिला साहित्यकारों की भूमिका सामाजिक समरसता और सकारात्मक सोच की दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण है। इनका योगदान समाज की सोच और विचारधारा में सकारात्मक बदलाव लाने में बहुत ही महत्त्वपूर्ण है।

महिला साहित्यकारों ने अपनी साहित्यिक रचनाओं के माध्यम से समाज के विभिन्न मुद्दों को उजागर किया है। वे समाज के लिए नई चेतना और प्रेरणा का स्रोत बनती हैं और समाज में जागरुकता फैलाती हैं। महिला साहित्यकारों ने समाज में उठते विभिन्न मुद्दों पर चुनौतियों का सामना किया और उन्हें जीता है।
महिला साहित्यकारों ने उन मुद्दों को उठाया है, जो समाज में व्याप्त हैं, जैसे कि महिलाओं के अधिकारों की लड़ाई, स्त्री शिक्षा, स्त्री सशक्तिकरण, उनकी स्वतंत्रता और स्वावलम्बन को लेकर।
स्त्री शिक्षा के महत्त्व को लेकर महिला साहित्यकारों के रचनात्मक योगदान ने समाज को बहुत जागरुक किया है। उन्होंने बच्चियों की शिक्षा के महत्त्व को उजागर किया है और समाज को उनकी शिक्षा के महत्त्व को समझने में मदद की है। इसके अलावा, महिला साहित्यकारों ने नारी शक्ति को संरक्षण देने और स्त्री सशक्तिकरण को बढ़ावा देने के लिए भी लड़ाई लड़ी है।

स्वतंत्रता और स्वावलम्बन को लेकर महिला साहित्यकारों के योगदान ने समाज को जागरुक किया है। उन्होंने स्वतंत्रता के महत्त्व को समझाया है और स्वावलम्बन के महत्त्व को सप्रमाण उजागर किया है।

महिला साहित्यकारों की सकारात्मक भूमिका न केवल साहित्य के लिए बल्कि समाज के विकास के लिए भी महत्त्वपूर्ण है। वे समाज में स्त्रियों की स्थिति को बेहतर बनाने के लिए साहित्य के माध्यम से सतत् लड़ाई लड़ती रही हैं और उनके द्वारा रचित कहानियाँ, कविताएँ, उपन्यास आदि साहित्य के क्षेत्र में नई दिशाएँ खोल रहे हैं।

आज के समय में, समाज और साहित्य के क्षेत्र में महिलाओं को अपनी आवाज़ उठाने के लिए बढ़ावा दिया जा रहा है। महिला साहित्यकारों के रचनात्मक योगदान ने समाज को एक सकारात्मक सोच देने की हर बार कोशिश की है।

समय – समय पर मातृभाषा डॉट कॉम इस तरह के विभिन्न विषयों पर परिचर्चा एवं विमर्श सहित विचार आमंत्रित कर बौद्धिक समृद्धता के लिए प्रयत्नशील रहेगा।

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डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’

आपका जन्म 29 अप्रैल 1989 को सेंधवा, मध्यप्रदेश में पिता श्री सुरेश जैन व माता श्रीमती शोभा जैन के घर हुआ। आपका पैतृक घर धार जिले की कुक्षी तहसील में है। आप कम्प्यूटर साइंस विषय से बैचलर ऑफ़ इंजीनियरिंग (बीई-कम्प्यूटर साइंस) में स्नातक होने के साथ आपने एमबीए किया तथा एम.जे. एम सी की पढ़ाई भी की। उसके बाद ‘भारतीय पत्रकारिता और वैश्विक चुनौतियाँ’ विषय पर अपना शोध कार्य करके पीएचडी की उपाधि प्राप्त की। आपने अब तक 8 से अधिक पुस्तकों का लेखन किया है, जिसमें से 2 पुस्तकें पत्रकारिता के विद्यार्थियों के लिए उपलब्ध हैं। मातृभाषा उन्नयन संस्थान के राष्ट्रीय अध्यक्ष व मातृभाषा डॉट कॉम, साहित्यग्राम पत्रिका के संपादक डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’ मध्य प्रदेश ही नहीं अपितु देशभर में हिन्दी भाषा के प्रचार, प्रसार और विस्तार के लिए निरंतर कार्यरत हैं। डॉ. अर्पण जैन ने 21 लाख से अधिक लोगों के हस्ताक्षर हिन्दी में परिवर्तित करवाए, जिसके कारण उन्हें वर्ल्ड बुक ऑफ़ रिकॉर्डस, लन्दन द्वारा विश्व कीर्तिमान प्रदान किया गया। इसके अलावा आप सॉफ़्टवेयर कम्पनी सेन्स टेक्नोलॉजीस के सीईओ हैं और ख़बर हलचल न्यूज़ के संस्थापक व प्रधान संपादक हैं। हॉल ही में साहित्य अकादमी, मध्य प्रदेश शासन संस्कृति परिषद्, संस्कृति विभाग द्वारा डॉ. अर्पण जैन 'अविचल' को वर्ष 2020 के लिए फ़ेसबुक/ब्लॉग/नेट (पेज) हेतु अखिल भारतीय नारद मुनि पुरस्कार से अलंकृत किया गया है।