संसार अगर एक रंगमंच है,
तो हां, मैं उसका एक पात्र..
मुखौटा,चरित्र,किरदार,अभिनय
और भूमिका हूँ।
बचपन,जवानी,वृद्धावस्था,
के पड़ावों से गुजरती जिन्दगी..
के बीच मैं कब पुत्र से पिता,
दादा,नाना,मामा और चाचा..
बन जाता हूँ, कुछ पता ही
नहीं चलता।
पात्रों की जरूरत के हिसाब से,
भूमिकाओं को निभाते-निभाते..
मैं अपने होने का अर्थ ही
भूलने लगा हूँ,क्योंकि मुझे,
हर भूमिका में अपना
सौ प्रतिशत देना होता है।
किसी भी एक भूमिका में,
कमजोर पड़ने का सीधा
मतलब रिश्तों में खटास..
या संबंधों में दरार का
पर्याय ही होता है।
इसलिए मेरी हर भूमिका,
मुझसे पूर्ण निष्ठा,समर्पण..
वफादारी और श्रम साधना
की मांग करती है।
चूँकि,मैं आपसी संबंधों का,
एक तागा भी कमजोर..
पड़ने देना नहीं चाहता,
इसलिए संसार रूपी..
रंगमंच की हर भूमिका
में डूबता चला जाता हूँ ।
मुझे पता ही नहीं चलता,
कि मेरे अन्दर का चपल..
चंचल,नटखट,वाचाल,
बालक,जिन्दगी में मिलने
वाली नित नई भूमिकाओं
को निभाते-निभाते कब
धीर-गंभीर, मितभाषी युवा
अधेड़ और वृद्ध बन जाता है।
अभिनय के रंगमंच,
का ग्लैमर भले ही..
जिन्दगी के रंगमंच,
से बड़ा हो,लेकिन जो
असली रोमांच और
चुनौतियाँ यहाँ हैं वो,
माया नगरी के
मायाजाल में कहाँ?
अफसोस है तो सिर्फ,
इतना कि जिन्दगी का..
रंगमंच एक किरदार,
को एक ही बार निभाने
की अनुमति देता है।
चाहकर भी मैं वृद्ध,
से युवा और अधेड़ से..
बच्चा नहीं बन पाता हूँ,
कोशिश भी करता हूँ तो,
इस अभिनय में असफल
रह जाता हूँ।
जिन्दगी के इस लाईव,
टेलीकास्ट में मैं न सज
पाता हूँ,न संवर पाता हूँ,
बस जैसा हूँ वैसा ही बन
कर रह जाता हूँ।
क्योंकि,
‘रील लाईफ’ की तरह..
मेरी ‘रीयल लाईफ’ मुझे,
री-टेक का मौका नहीं देती।
#डॉ. देवेन्द्र जोशी
परिचय : डाॅ.देवेन्द्र जोशी गत 38 वर्षों से हिन्दी पत्रकार के साथ ही कविता, लेख,व्यंग्य और रिपोर्ताज आदि लिखने में सक्रिय हैं। कुछ पुस्तकें भी प्रकाशित हुई है। लोकप्रिय हिन्दी लेखन इनका प्रिय शौक है। आप उज्जैन(मध्यप्रदेश ) में रहते हैं।