वाणी की तलवार

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manoj kumar manju
जब खेतों में नंगी काया पल पल तपती रहती है|
आँगन में बैठे ख्वाबों के पंख उतिनती रहती है||
बेवश आँखों में बस केवल नीर समाया रहता है|
तब कवि ह्रदय हुकूमत के प्रति आग उगलने लगता है||
नहीं प्रेम के मधुर मधुर मैं गीत सुनाने आया हूँ|
वाणी की तीखी तीखी तलवार चलाने आया हूँ||
जब चूल्हे में सिमटी माया कड़वा धुआं निगलती है|
फटे चीथड़ों में उलझी शर्मों से और पिघलती है||
रुखा सूखा खिला स्वयं जब अवला फांके करती है|
लिखते लिखते कलम आंशुओं में फिर बहने लगती है||
नहीं चूड़ियों का मैं मीठा गान सुनाने आया हूँ|
वाणी की तीखी तीखी तलवार चलाने आया हूँ||
जब बचपन के सम्मुख जिम्मेदारी आन उलझती है|
गुड़ियों वाले हाथों में बरतन की राख चमकती है||
बस्ते वाले कांधे जब दुनिया का बोझ उठाते हैं|
तब सरकारी फरमानों पर प्रश्न चिन्ह लग जाते हैं||
नहीं लोरियों की मीठी मैं तान सुनाने आया हूँ|
वाणी की तीखी तीखी तलवार चलाने आया हूँ||
जब यौवन घनघोर निराशाओं में डूबा रहता है|
दफ्तर के चक्कर दुनिया के ताने सहता रहता है||
कोई युवा बेवशी में जब राह भटकने लगता है|
तब कवि ह्रदय हुकूमत के प्रति जहर उगलने लगता है||
नहीं हीर और राँझा की मैं गाथा गाने आया हूँ|
वाणी की तीखी तीखी तलवार चलाने आया हूँ||
#मनोज कुमार “मंजू”
मैनपुरी (उत्तरप्रदेश)

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