चल रात सिरहाने रखते है ।
उजियारों को हम तकते है ।
दूर गगन में झिलमिल तारे ,
चँदा से स्वप्न सुहाने बुनते है ।
सोई नही अभिलाषा अब भी ,
नव आशाओं को गढ़ते है ।
चल रात सिरहाने …
थकता है दिनकर भी तो ,
साँझ तले क्षितिज मिलते है ।
नव प्रभात की आशा से ,
तारे चँदा के संग चलते है ।
टूट रहे अंधियारे धीरे धीरे ,
उजियारे तम में ही मिलते है ।
चल रात सिरहाने …
जीवन की हर आशा को ,
दिनकर सा हम गढ़ते है ।
नव प्रभातिल भोर तले ,
दिनकर सा हम चलते है ।
#विवेक दुबे
परिचय : दवा व्यवसाय के साथ ही विवेक दुबे अच्छा लेखन भी करने में सक्रिय हैं। स्नातकोत्तर और आयुर्वेद रत्न होकर आप रायसेन(मध्यप्रदेश) में रहते हैं। आपको लेखनी की बदौलत २०१२ में ‘युवा सृजन धर्मिता अलंकरण’ प्राप्त हुआ है। निरन्तर रचनाओं का प्रकाशन जारी है। लेखन आपकी विरासत है,क्योंकि पिता बद्री प्रसाद दुबे कवि हैं। उनसे प्रेरणा पाकर कलम थामी जो काम के साथ शौक के रुप में चल रही है। आप ब्लॉग पर भी सक्रिय हैं।