पवित्र सत्ता किन हाथों में!

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pradeep upadhyay

कहते हैं कि जंग और मुहब्बत में सब जायज है।यानी जायज तो जायज है ही,नाजायज भी जायज!किन्तु यह बात कही किसने होगी!मुझे लगता है कि या तो जिसने जंग जीती होगी या फिर जिसने मुहब्बत में अपने प्रेमी या प्रेयसी को पा लिया होगा।वरना तो जिसे युद्ध में हारना पड़े या जिसे प्यार में बिछोह का सामना करना पड़े, वह तो कभी इस तरह की बात नहीं करेगा!वैसे धर्मराज युधिष्ठिर या लैला-मजनू से भी इस तरह की बात की उम्मीद नहीं की गई होगी।

फिर भी, यह बात उतनी ही सही है कि जीत के लिए सभी पक्ष जायज-नाजायज तरीकों को अपनाने से पीछे नहीं रहते।इस बात को तो आप भी मानेंगे कि जंग और मुहब्बत दो देशों या दो विपरीत लिंगियों के बीच का ही मुद्दा नहीं रह गया है।अभी देश में बहुत बड़ा महासंग्राम छिड़ा हुआ है, महाभारत से भी बड़ा।धर्म के विरुद्ध धर्म और अधर्म के विरुद्ध अधर्म।यहाँ धर्म सत्य और न्याय से नाता नहीं रखता बल्कि यहाँ का धर्म पंथ और सम्प्रदाय से नाता रखता  है जिसमें सभी के सही होने का दावा रहता है।।यहाँ धर्म और अधर्म का घालमेल हो गया है।ऐसे में यह समझना मुश्किल है कि यह महासंग्राम दो पक्षों के मध्य है या धर्म-अधर्म के समान पक्ष-विपक्ष का भी घालमेल हो गया है।

यहाँ तो सत्ता के लिए जंग है और सत्ता से और सत्ता के लिए ही मुहब्बत है तब कोई कैसे जायज-नाजायज़ की बात सोच सकता है!यहाँ तो साध्य पवित्र है यानी सत्ता तो पवित्र है, हाँ,उसका सतीत्व भंग करने वाले बहुतेरे हैं लेकिन जिस तरह से गंगा को कुकर्मियों द्वारा मैली कर देने के बावजूद वह पवित्र पावन है।ठीक उसी तरह सत्ता भी पवित्र पावन है।कहने वाले यह बात जरूर कहते हैं और लार्ड एक्टन भी कह गये हैं कि सत्ता भ्रष्ट करती है और पूर्ण सत्ता भ्रष्ट करती है पूर्णतया।लेकिन वास्तव में ऐसा है नहीं।सत्ता तो जनसेवा का मार्ग प्रशस्त करती है लेकिन वे हैं कि अपना मार्ग प्रशस्त कर लेते हैं।आखिरकार भ्रष्ट तो इंसान ही होता है।तब फिर क्या आज के संदर्भ में यह कहा जाए कि इंसान भ्रष्ट होता है और पूर्ण इंसान पूर्ण रूप से भ्रष्ट हो जाता है!

सत्ता तो बेचारी उस नारी की तरह होती है जो शक्ति स्वरूपा और सौंदर्य की देवी होती है और कामपिपासु पुरूष उसे भोग्या स्वरूप में ही देखने लगता है।बहरहाल सत्ता साध्य मान ली गई है लेकिन फिर भी पवित्र है तथापि साधनों की पवित्रता की कौन बात करे!साधन तो पवित्र भी हो सकते हैं और अपवित्र भी!पवित्र सत्ता के लिए जो महासंग्राम हो रहा है उसमें बेमेल विवाह की तरह बेमेल गठबंधन भी जायज हैं जहाँ विचारधारा, सिद्धांत, आदर्श और नैतिक मूल्यों का कोई स्थान नहीं है।सीधी सी बात है कि जनहित के कंधे पर बंदूक रखकर स्वहित का निशाना साधना ही इस महासंग्राम का एकमात्र मकसद प्रतीत होता है।

सभी पक्षों के पास बातों के तीर की कोई कमी नहीं है।उन्हें यह भी नहीं मालूम कि कब किस अस्त्र-शस्त्र का उपयोग करना है।वे न तो अपने पास तरकश रखें हैं न कमान बल्कि यहाँ-वहाँ से तीर उठाकर फैंकते चले जा रहे हैं बिना निशाना साधे।चल गया तो ठीक, लग गया तो ठीक।इनकी सेना के हाथी कभी -कभी नहीं बल्कि सदैव ही अपनी फौज को  कुचलने में संलग्न रहते हैं।यही राजनीति का खेल है!सत्ता का शील भंग करने और उसके बाद स्वयं की पवित्रता स्थापित करने का!जय हो आज के लोकतंत्र की।

परिचय

नाम- डॉ प्रदीप उपाध्याय

वर्तमान पता- 16,अम्बिका भवन,उपाध्याय नगर, मेंढकी रोड,देवास,म.प्र.

शिक्षा – स्नातकोत्तर

कार्यक्षेत्र- स्वतंत्र लेखन।शासकीय सेवा में प्रथम श्रेणी अधिकारी के पद से सेवानिवृत्त

विधा- कहानी,कविता, लघुकथा।मूल रूप से व्यंग्य लेखन

प्रकाशन- मौसमी भावनाएँ एवं सठियाने की दहलीज पर- दो व्यंग्य संग्रह प्रकाशित एवं दो व्यंग्य संग्रह प्रकाशनाधीन।

देवास(मध्यप्रदेश)

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