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रुकते-रुकते इस महफ़िल में,जाना अच्छा लगता है।
कोई न जाने मुझको यहाँ,अनजाना अच्छा लगता है।
दूर निकल देखा रे जिंदगी,वो मजलिस मेरा था ही नहीं।
गुमसुम-गुपचुप बैठा यहाँ,सारा बेगाना अच्छा लगता है।
छूटा अपने टूटे जो सपने,किसका मुझे है गम करना।
ठोकरें इतनी पायी है मैंने,सारा जमाना अच्छा लगता है।
गम करना मैं छोड़ दिया,क्या खोना और क्या पाना।
चंद लम्हें जीने के खातिर,गबाना अच्छा लगता है।
चला था मैंने खोकर सबकुछ,कुछ चाहत तो थी ही नहीं।
मुस्काता हूँ खुद ही खुद से,ये परवाना अच्छा लगता है।
#प्रभात कुमार दुबे (प्रबुद्घ कश्यप)
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