हिमाचल में बरसात और रोमांस

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anant aalok

देश के मैदानी इलाकों में भले ही बरसात का मौसम आफत लेकर आता हो लेकिन ऊँचे पहाड़ों पर यही बरसात कुदरत की खूबसूरत नैमतें लेकर आती है |कुछ अपवादों को छोड़ दिया जाये तो बरसात पहाड़ों को इस तरह सजाती संवारती है की सदैव पहाड़ों पर रहने वाले लोग भी इस सौन्दर्य पर फ़िदा हो जाते हैं |बच्चे बूढें ,नवयुवक नवयुवतियां सब के सब  झूम उठते हैं | नाचते गाते आनंदित होते सभी जवां बूढ़े दिल गुनगुनाते गाते नजर आते हैं जो ह्रदय के आनंदित होने का प्रमाण होता है | पहाड़ी हृदयों का यूँ आनंदित हो कर झूम उठना अनायास नहीं है , बरसात का मौसम ही ऐसा होता है पहाड़ों में कि इंसान के क्या  पशु पक्षी ,जिव जंतु सब के सब हँसते गाते झूमते नजर आते हैं | नदियों में उमड़ता यौवन पेड़ पोधों के तन पर हरिताम्बर उस पर लाल पीले फूलों के खूबसूरत आभूषण मानो नव युवक नवयुवतियां किसी उत्सव में सज धज कर झूम झूम कर नाच गा रहे हों | ऐसा नयनाभिराम दृश्य भला किसे आनंदित  नहीं करेगा |

हिमाचल की बात करूँ तो यहाँ बारसात के मौसम में पग पग पर ऐसे मनोहारी दृश्य दृष्टिगोचर होते हैं | इस प्राकृतिक आनंद उत्सव का भरपूर आनंद लेते हैं यहाँ के वाशिंदे | दरअसल बरसात के दिनों में हिमाचल क्या लगभग सभी ग्रामीण इलाकों में फसल को बिजने , निराई गुड़ाई करने के बाद पर्याप्त फुर्सत के क्षण होते हैं | इन्हीं फुर्सत के क्षणों में जवां दिलों में दबी प्रेम की चिंगारी को मिल जाती है थोड़ी मौसम की हवा | बस फिर क्या सभी जवान दिल बाग़ बाग़ हो उठते हैं | ऐसे जवां दिलों के मचलने बहलने और बहकने के लिए पर्याप्त स्पेस मिल जाता है फसों की रखवाली के समय | मकई की आदमकद झूमती फसल के छोरों पर बने होड़ों (फसल की रखवाली के लिए बनाये गए अस्थाई शेड ) में बतियाते खिलखिलाते , मस्ती करते कईं कईं दिल फसलों संग झूम उठते हैं | रोमांस के इन तरंगित कर देने वाले पलों को केवल अनुभव किया जा सकता है , नंगी आँखों से देखा नहीं जा सकता ! क्योंकि आहट पाते ही वे भाग खड़े होते हैं अपनी अपनी ड्यूटी पर | आप कुदरती रंग में रंगे इन दुर्लभ पलों को इसमें स्वयं शामिल हो कर ही देख सकते हैं | घास फूस की छत वाले लकड़ी से बने बंकर नुमा इन होड़ों में धरती से पर्याप्त ऊंचाई पर होते हैं अस्थाई शयन आसन जिन में थकान होने पर कमर सीधी की जा सके या फिर रात के समय जानवरों का डर हो तो सुरक्षित खुली आँख रख कर सोया या लेटा जा सके |

हूँ … हा … ले … ले … की ध्वनी से जानवरों को डराने भगाने  के साथ -साथ अन्य रखवालों को भी सूचित ,आकर्षित कर लिया जाता है कि आज हम हैं यहाँ क्योंकि हर रोज एक ही की ड्यूटी रखवाली के लिए लगे ऐसा तभी होता है यदि घर पर एक या दो ही सदस्य हों अन्यथा ड्यूटी बदलती रहती है |

ऐसा ही सिग्नल फिर दूसरे छोर से भी मिलता है | इसी तरह रखवाला / रखवाली किसी मुसीबत या खतरनाक जानवर के हमले से बचने के लिए भी संगठन तैयार कर लेते हैं और दादुर ,झींगुर ,नालों और होड़ों के नीचे बंधे कुत्तों के सामूहिक शोर गुल के बीच हंसी ठिठोली ,छेड़छाड़ और प्यार की बातें खुले आसमान के नीचे बेरोकटोक और बेखोफ होती रहती हैं लेकिन जिन्दगी के इस आनंद के लिए कुछ खोना न पड़ता हो , ऐसा नहीं है | इस सब के लिए खोनी पड़ती है दिन की चैन और रातों की प्यारी प्यारी नींद | अन्यथा रखवालों की मश्गुलियत का फायदा उठा कर जंगली जानवर फसलें उजाड़ देंगे और अगले दिन से फिर रखवाले की छुट्टी |

प्रेम , रोमांस में जोर जबरदस्ती छीना झपटी वर्जित है और इसी लिए शायद इसमें इतना मजा भी है वो गीत है न ! ‘ ये माना मेरी जां मुहब्बत सजा है / मजा इसमें इतना मगर किस लिए है ‘  शहरों में भले ही आज वासनाओं के दरिन्दे दरिंदगी पर उतर आते हों लेकिन ग्रामीण इलाकों ,ख़ास कर पहाड़ों में आज भी प्रेम को प्रेम की तरह ही किया जाता है |

चरागाहें और रोमांस

बरसात के ही दिनों का एक और मनोहारी दृश्य होता है चरागाहों में पशु चराते निश्छल , निष्कपट और  खूबसूरत चरवाहे | चरागाहों में मुहब्बत परवान चढ़ने के किस्से भगवान् कृष्ण से समय से चले आ रहे हैं | बांसुरी बजाते  भगवान कृष्ण और पास  में चरती गौवें , गोपियों का कृष्ण के बांसुरी पर मुग्ध हो आकर्षित होना और फिर कृष्ण से छेड़ करना , भले ही वह प्रेम निश्छल और निस्वार्थ था | लेकिन था तो प्रेम ही और जब प्रेम से भगवान् नहीं बच पाए तो भला इन्सान की क्या औकात ! पहाड़ी प्रदेशों के ग्रामीण आंचल में पढाई लिखाई पूरी करने के बाद नोकरी लगने से पहले और शादी विवाह के बीच के अंतराल में युवक युवतिओं के पास एक मस्त स्पेस होता है, जिसका सदुपयोग वे करते हैं घर के कार्य में हाथ बंटाना और घर में सबसे जरुरी और कठिन कार्य होता है पशुओं के देखभाल | इस कार्य को कोई बड़ा ,बूढ़ा मजबूरी में ही करता है | इस कार्य को ख़ुशी ख़ुशी करते हैं ये युवक  युवतियां | ये सुबह का नाश्ता बगैरह करने के बाद अपने अपने पशु – गौवें , बकरियां लेकर निकल जाते हैं घर से दूर सामूहिक या शामलात (सरकारी) चरागाहों में जहाँ पशु हरी भरी घास , द्दोब चरते हैं और युवक युवतियां अपने मित्रों या से संग खेलते , बतियाते , हँसते गाते मस्ती करते हैं | ये हँसना खेलना , गुनगुनाना कब गीतों में बदल जाता है पता ही नहीं चलता और गीत / गाना वही गाता है… गीत भी है न ! ‘हरदम जो प्यार करेगा वो गाना गायेगा …और बरसात का मौसम आते है इन जवां दिलों की धड़कने पहले से तेज हो जाती हैं | तन मन में खिल उठती हैं प्रेम की भीनी भीनी सुगंध वाली प्रेम मंजरियाँ | जिनकी खुशबू हवा के साथ चारों और फ़ैल जाती है | लड़का लड़की पहले से परिचित हों तो प्रेम की पींग चढाने में अधिक देर नहीं लगती लेकिन अपरिचित हों तो यहाँ प्रेम प्रसंग आज भी कृष्ण के समय के ही होते हैं | युवक बांसुरी पर मधुर मधुर  , मनमोहक तान छेड़ता है और जो लड़की के ह्रदय को तरंगित कर देती है | घर से दूर प्रकृति की हरी भरी गोद में नदी ,नालों के शोर के बीच से उठती बांसुरी की स्वर लहरियां पर्वतों से टकरा कर गूंजती हैं तो एक दो नहीं कईं कईं गोपियाँ कान्हां की दीवानी हो जाती हैं | मधुर धुन का पीछा करती हुई हिम्मत वाली लड़कियां धुन का जवाब अपनी मधुर आवाज में किसी लोकगीत या फिर प्रेम गीत गंगी से देती हैं | हाँ दूरियां मिटाने में या यूँ कहें एकाकार होने में शहरों के अपेक्षा बहुत अधिक समय लगता है | कृष्ण गोपिओं के ये लीला महीनों कई बार तो सालों चलती है और कई बार इतनी देर हो जाती है कि हाथ खाली के खाली रह जाते हैं | दोनों में से किसी एक या फिर दोनों का ही  विवाह  माँ बाप की मर्जी पर हो जाता है , लेकिन मुहब्बत को भला कौन मार पाया है | वह तो शाश्वत है और रहेगी | ऐसे प्रसंगों में फिर साल भर से प्रतीक्षा रहती है बरसात / चौमासे की , पहाड़ों में आज भी पहली बरसात यानि चौमासे में सास बहुएं एक स्थान पर नहीं रहती हैं | पूरे देश में भी सावन को इसी लिए काला महिना कहा जाता है | ये काला होता है उन नव विवाहितों के लिए जो अपनी मर्जी से विवाह करते हैं या जिनका कोई प्रेम प्रसंग न हो या हो भी तो वे उसे भूल कर अपने नए जीवन की शुरुआत कर चुके हों | लेकिन यही काला महिना उन प्रेमिओं के लिए सुनहरा महिना हो जाता है जो एक दूजे को देखने , सुनने बतियाने के लिए साल भर से प्रतीक्षा रह रहे होते हैं | प्रसंग कितने भी गहरे हों लेकिन समय ऐसा मरहम है कि बड़े बड़े जख्मों को भर देता है लेकिन थोड़े दिन तो जख्म हरे रहते हैं ! फिर धीरे धीरे घर गृहस्थी के चक्कर में सब भूल भाल जाते हैं | कहते भी हैं कि आँखों से ओझल दिमाग से ओझल | भूलना ही चाहिए जो हो न सका उसे भुलाना ही ही सबके लिए अच्छा है | भूलने का भी बड़ा महत्व है ,  अन्यथा इंसान पागल न हो जाए ,सब अस्त व्यस्त न हो जाये | आज के समय में ये जो आभासी दुनियां का संपर्क हैं और जो बराबर बने रहते हैं यही शादी विवाह के टूटने के सबसे अधिक जिम्मेवार होते हैं |

लोकगीतों में प्रेम

पहाड़ी जीवन में लोकगीतों का विशेष महत्व हो है या यूँ कहें की लोक में लोकगीतों का बहुत अधिक महत्व है वो फिर पहाड़ी लोक हो या फिर देसी | हिमाचल की बात करें तो मेलों , उत्सवों , विवाह शादियों और त्योहारों के अवसर पर नाटी , मुजरा , रासा , गंगी , साके और पुड्वा आदि अनेक लोकगीत गाने का प्रचलन है | लेकिन गंगी एक ऐसा लोकगीत है जिसे प्रेम गीत ही कहा जा सकता है | गंगी यानि माहिया जो न केवल लोक में रचा बसा है बल्कि हिंदी साहित्य में भी पद्य विधा के अन्त्रगत स्वतंत्र उपविधा के रूप में स्थापित है | माहिया पंजाब बे भी बहुत लोकप्रिय है | इसमें नायक नायिका गीतों के माध्यम से एक दूसरे से सवाल जवाब करते हैं | पहाड़ों में गंगी यानि माहिया को यूँ तो विवाह आदि में भी मनोरंजन के लिए गाया जाता है लेकिन बरसात के मौसम में रिमझिम फुहारों के बीच जंगल में या घसनियों में घास काटते हुए जब गंगी की स्वर लहरियां पंचम स्वर में गूंजती हैं तो चलते मुसाफिरों के पाँव थम जाते हैं | पहाड़ी के एक ढलान पर घास काटता या पशु चराता नायक दूसरी पहाड़ी पर या फिर छोर पर कार्य करती नायिका को सुनाते हुए यूँ गाता है ‘’तेरी बकरी रु नाव दुर्मा / पारो दी तू आंडड़ी आजा / तेरी आखटी  दा पाऊं सुरमा |’’ और फिर दूसरे छोर से नायिका जवाब देती है | “ बोडे बाबे रे बे लाडली धियो / कालजा बे बोडा इ चेईं / दावा होशो री तो दाणिख पियो |” इस प्रकार ये सिलसिला कई कई दिनों तक चलता है, जिसमें भले ही विशुद्ध प्रेम न हों लेकिन रोमांस तो है न ! चुहल तो है न  , छेड़खानी तो है न ! आज के भागदौड़ वाले समय में किसी के पास समय कहाँ है इन बातों के लिए लेकिन ग्रामीण इलाकों में आज भी ये रोमांस , चुहल , छेड़छाड़ है , हाँ है नहीं तो जोर जबरदस्ती , हवस , दरिंदगी | आज अंतरजाल के दुनियां में खोये युवा युवतियां जितनी जल्दी एक दूसरी की और आकर्षित होते हैं उतनी ही जलती विकर्षित भी हो रहे हैं | स्वाभाविक भी है आभासी दुनियां में आदमी केवल और केवल एक मशीन है और मशीन में संवेदनाएं नहीं होती | संवेदनाएं तो केवल अब गाँव के इन प्रसगों में ही बची हैं ख़ास कर पहाड़ों में और जब तक बची हैं तब तक ही वह इंसान है

 परिचय

नाम  :         अनन्त आलोक

शिक्षा :        वाणिज्य स्नातक , शिक्षा स्नातक ,स्नातकोत्तर (हिंदी ) |

पुस्तकें  : तलाश (काव्य संग्रह) 2011 में , यादो रे दिवे (हाइकु अनुवाद) |   मेरा शक चाँद पर साहिब (हिंदी ग़ज़ल संग्रह ) प्रकाशनाधीन |

प्रसारण :       दूरदर्शन एवं आकाशवाणी  से , साक्षात्कार , कवितायेँ , ग़ज़लें एवं आलेख एवं वार्ता प्रसारित |

प्रकाशन :  विपाशा , हिमभारती , हिमप्रस्थ , गिरिराज ,हंस , बाल हंस , बाल भारती , बया , सरस्वती सुमन , अभिनव प्रयास , अभिनव इमरोज , गर्भनाल , कथा समय , समहुत , कर्मनिष्ठा , द बूस्ट , सुसंभाव्य , नव निकष , पेन , हिमतरु, शैल सूत्र , पंजाब केसरी ,देशबंधु ,अमर उजाला , दिव्य हिमाचल , दैनिक भास्कर , दैनिक न्याय सेतु ,  राजस्थान पत्रिका आदि शताधिक पत्र पत्रिकाओं एवं ऑनलाइन पत्रिकाओं में कहानियां , कवितायेँ , ग़ज़लें , लघुकथाएं , बाल कथाएं ,आलेख एवं समीक्षाएं प्रकाशित एवं असंख्य संकलनों में संकलित  |

विशेष : एंडरोयड एप ‘समकालीन हिन्दुस्तानी ग़ज़लें ‘ पर ग़ज़लें उपलब्ध |

कवि सम्मेलनों ,मुशायरों एवं लघुकथा सम्मेलनों में निरंतर भागीदारी |

सम्मान :    अंतर्राष्ट्रीय कवि सम्मेलन नेपाल में विशिष्ट प्रतिभा सम्मान , सिरमौर कला संगम ,हिमोत्कर्ष के प्रतिष्ठित पुरस्कार सहित दर्जनों सम्मान |

सम्प्रति :      हिमाचल सरकार में अध्यापन |

संपर्क :      ददाहू  जिला सिरमौर हिमाचल प्रदेश

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One thought on “हिमाचल में बरसात और रोमांस

  1. समस्त सम्पादक मंडल का ह्रदय से आभार | स्नेह बनाये रहिएगा |

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डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’

आपका जन्म 29 अप्रैल 1989 को सेंधवा, मध्यप्रदेश में पिता श्री सुरेश जैन व माता श्रीमती शोभा जैन के घर हुआ। आपका पैतृक घर धार जिले की कुक्षी तहसील में है। आप कम्प्यूटर साइंस विषय से बैचलर ऑफ़ इंजीनियरिंग (बीई-कम्प्यूटर साइंस) में स्नातक होने के साथ आपने एमबीए किया तथा एम.जे. एम सी की पढ़ाई भी की। उसके बाद ‘भारतीय पत्रकारिता और वैश्विक चुनौतियाँ’ विषय पर अपना शोध कार्य करके पीएचडी की उपाधि प्राप्त की। आपने अब तक 8 से अधिक पुस्तकों का लेखन किया है, जिसमें से 2 पुस्तकें पत्रकारिता के विद्यार्थियों के लिए उपलब्ध हैं। मातृभाषा उन्नयन संस्थान के राष्ट्रीय अध्यक्ष व मातृभाषा डॉट कॉम, साहित्यग्राम पत्रिका के संपादक डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’ मध्य प्रदेश ही नहीं अपितु देशभर में हिन्दी भाषा के प्रचार, प्रसार और विस्तार के लिए निरंतर कार्यरत हैं। डॉ. अर्पण जैन ने 21 लाख से अधिक लोगों के हस्ताक्षर हिन्दी में परिवर्तित करवाए, जिसके कारण उन्हें वर्ल्ड बुक ऑफ़ रिकॉर्डस, लन्दन द्वारा विश्व कीर्तिमान प्रदान किया गया। इसके अलावा आप सॉफ़्टवेयर कम्पनी सेन्स टेक्नोलॉजीस के सीईओ हैं और ख़बर हलचल न्यूज़ के संस्थापक व प्रधान संपादक हैं। हॉल ही में साहित्य अकादमी, मध्य प्रदेश शासन संस्कृति परिषद्, संस्कृति विभाग द्वारा डॉ. अर्पण जैन 'अविचल' को वर्ष 2020 के लिए फ़ेसबुक/ब्लॉग/नेट (पेज) हेतु अखिल भारतीय नारद मुनि पुरस्कार से अलंकृत किया गया है।