बैठ जाता हूँ अक्सर थक हार कर
जब चला न जाये तो पैर पसार कर
रुकने का मतलब ये नहीं की हम डर गए
काँटों पर चल कर पहुँचते है मंजिल के उस पार
और तभी होती है जग में जय जयकार
चाह मोतियों की सागर में उतरा कई बार
मिले हो रतन मुझको हुआ नहीं ये कई बार
खाली हाथों का मतलब ये नहीं की हम लक्ष्य से दूर है
कोशिश ये मेंरी ही बनाएगी इन मोतिओ से हार
और तभी होती है जग में जय जयकार
जिसने सहा हो दर्द विफलता का,
वही समझे मज़ा क्या है सफलता का,
एक कदम उठा के मंजिल मिल जाये सबको,
होता नहीं ऐसा कोई चमत्कार,
रक्त अपने से करना पड़ता है विजयश्री का श्रृंगार,
और तभी होती है जग में जय जयकार
छूने नील गगन को चिड़िया भरे सौ बार हुंकार
पंख फैलाये उड़ना भी चाहे पर तोड़ न पाए पवन का द्वार
प्रयास ये उसके दिखाएंगे पंखों के नीचे सारा संसार
और तभी होती है जग में जय जयकार
काँटों पर चल कर पहुँचते है मंजिल के उस पार
और तभी होती है हर्ष जग में जय जयकार
#प्रमोद कुमार “हर्ष”