पूणिमा की चांदनी रात में
मेहबूब को लेकर साथ में।
चले जन्नत में मोहब्बत
करने के लिए वो।
मेहबूब के पैरों में कही
कोई कांटा न चुभ जाये।
तभी तो चांद ने बगीचे में
मोतियो को बिछा दिये।।
जैसे ही पढ़े कदम मेहबूब के
जन्नत के बाग में।
मुरझाए लताएं भी स्पर्श से
फिर से खिल उठी।
और ठंडी हवाओ ने
फिर खुशबू बेखर दी।
और प्यार के सागर में
अमृत को खोल दिये।।
होठो लालिमा गुलाब की
तरह खिल रही है।
आंखों से मोहब्बत का
नशा बरस रहा है।
और वदन से चंदन की
खुशबू महक रही है।
सही मायनों में हम
जन्नत में रह रहे है।।
बालो की काली घटायें
लजा दिखा रही है।
और सबकी नजरों से
मेहबूब को छुपा रही है।
की कही और की नजर
मेहबूब पर पड़ न जाये।
इसलिए अपने आँचल के
पल्लू से उसे छूपा रही है।।
मोहब्बत का जाम पीने को
हर किसी को नहीं मिलता।
अपनी मेहबूबा का साथ
नसीब वालो को ही मिलता।
बदनसीब होते है वो जिनकी
जिंदगी में मेहबूब नहीं होता।
और जन्नत में अमृत का रस
पीने को नही मिलता।।
जय जिनेन्द्र देव
संजय जैन (मुंबई)