नदी सी स्त्री तुम
निरंतर बहती रही हों
औऱ सदा गतिशील रहना… क्यूकि
ठहरना स्त्री धर्म नहीँ है
स्वंतंत्र चेतना सजग जागरूक
मगर कबीर की माया
प्रसाद की श्रद्धा
गुप्त की अबला
तुलसी कहे ताडना की अधिकाराणि
तुम दोयम दर्जे की ही नागरिक हों
माँ हों बेटी हों पत्नी औऱ प्रेयसी भी
किंतु व्यक्ति रुप मे क्या हों?
सारा व्यक्तित्व यौन शुचिता पे
आधारित भी निर्धारित भी आज
नौघा ,आकृष्टा, सिकता, निवावरी, गोपायना
सामवेद मे उल्लेख हुई स्त्रियों से पलट कर पूछो
तुम ब्रह्मविद्या मे प्रवीण गार्गी से पूछो
उपनिषद काल मे झांको तो पता चले
कि तुम आरोपित सामाजिक अवधारणा नहीँ
गणिका दासी अभिनेत्री मात्र नहीँ हों तुम
तुम हीन होकर प्रस्थापित महज अहिल्या नहीँ
कोई भी अस्वभाविक बंधन चिरस्थायी नहीँ
कयू शताब्दी से घुट रही हों फ़िर….
तुम चेतना हों चेतना…..
तो…..तुम हाँ तुम…….
अविरल बहों…निश्चिंत सी !
#डॉ मेनका त्रिपाठी