प्रेम,इश्क,मुहब्बत,प्यार आखिर इन आधे अक्षरों में ऐसा क्या है कि प्यार से गुजरकर इंसान वो नहीं रहता,जो इश्क करने से पहले होता है… |
जीवन का सही अर्थ प्रेम में ही समझ में आता है,फिर सारी जानकारी अनुभव बनने लगती है और अनुभव इंसान को रुपांतरित करने लगता है,यही रुपांतरण इंसान को नया बना देता है… |
कहते हैं प्यार भी अपने प्रथम अक्षर की तरह सदा आधा एवं अधूरा रहता है,फिर यह कौन-सी स्थिति है,जो मनुष्य को पूर्णता तक ले जाती है… |
वह स्थिति है-इश्क की…मुहब्बत की…प्रेम की….लगन की… |
सच तो ये है कि,प्रेम को शब्दों में नही बाँधा जा सकता | प्रेम पर कहने या लिखने जैसा कुछ भी नहीं है,शब्द सीमित है और प्रेम,प्यार,इश्क,मुहब्बत असीमित… |
संत भीखा का कहना है-
`भीखा बात अगन की
कहन सुनन की नाहीं|
जो जाने सो कहे नाहीं
जो कहे सो जाने नाहीं||`
एक प्रेमी जिसने प्रेम को जिया है,पिया है और जिसने प्रेम को जीवन बनाया है और उसके जीवन में आस-पास की,ऊँच-नीच की सारी दिवारें मिट जाती है…वह इस कदर दूसरों में खो जाता है,दूसरों मेँ मिट जाता है,इश्क में घुल जाता है कि,उसके स्वयं का अस्तित्व ही नहीं बचता… |सामने वाला प्रिय ही उसकी पहचान बन जाता है,इश्क,मुहब्बत की,प्रेम और प्यार की इसी अवस्था का नाम है |
सूफ़ी किन्हीं कायदों,ग्रंथों एवं कानूनों मेँ बंधे हुए समाज धर्म या व्यक्ति का नाम नहीं है,सूफ़ी उस इंसान का नाम है जिसके भीतर उस खुदा की रूह बसती है,जिसकी वह बंदगी करता है|
सूफ़ी अर्थात दो दिलों व आत्माओं का मिलन,दो सुरों का संगम,एक मधुर अनूभूति,एक अनजानी अनदेखी प्रसन्नता,एक खूबसूरत एहसास,एक खूबसूरत ज़ज़्बा जो अपने विविध रंगों एवं रूपों के साथ इंसानी जिंदगी में आता है और मानव जीवन को तृप्त कर देता है| कभी उसे स्पर्श में प्यार का आभास मिलता है,तो कभी शब्दों में,कभी ग्रन्थ में प्यार की खुशबू आती है तो कभी रूप में,लेकिन ज्यों-ज्यों वह बड़ा होता जाता है प्यार की परिभाषा इंसान की समझ से परे होती जाती है,क्योंकि यह एक ऐसी अनूभूति है जिसे किसी भी तरह से नापा नहीं जा सकता,व्यक्त भी नहीं किया जा सकता है और परिभाषित भी नहीं किया जा सकता है| जैसे परमात्मा अंनत है,एक रहस्य है,वह दिखता नहीं है,ठीक वैसे ही सूफ़ी भी एक रहस्य है क्योंकि वह उस रहस्यमयी की खोज में है| उसको जितना जानो,जितना पियो उतना ही कम है…| सूफ़ी वो है जो अपने परमात्मा के सिवाय कहीं और आकृष्ट ही नहीं होता,जो अपने जिस्म में मौजूद तो है पर अपने जिस्म के साथ बंधा हुआ नहीं है,जो परमात्मा को कहीं बाहर,मंदिर,मस्जिद,पत्थरों या मूर्तियों में नहीं,स्वयं अपने भीतर अपने ह्रदय में,अपने अंतर्जगत में सिर्फ खोजता ही नहीं,बल्कि पा भी लेता है,जिसकी जुबान,दिल और दिमाग पर एक ही नाम बसता है….जिसके मन में यदि कुछ है तो वह है,अपने इश्क को पाने का जुनून…| जिसका मन सिर्फ अपने रब के लिए ही आकुल- व्याकुल हो,उन्हें ही सूफ़ी कहते हैं…उन्हें ही सन्त कहते हैं…|
सूफ़ी वो है जो अल्लाह को पाने के लिए धर्म की वास्तविकता यानि मुहब्बत पर ध्यान केन्द्रित करता है और उस सीधे रास्ते को अपनाता है,जो सीधे अल्लाह से जा मिलता है|
परमात्मा के उस साक्षात्कार के समय दिव्यत्व का बोध नहीं होता,द्रष्टा और दृष्ट दोंनों एक हो जाते हैं| उसके अंतःकरण में कोई संवेदना शेष नहीं रहती…न क्रोध की,न कामवासना की, न विवेक की,न आध्यात्मिक अनुभूति की और न ही उसके अपने व्यक्तित्व की|
सूफ़ी शब्द की उत्पत्ति अनेक शब्दों से मानी जाती है…| सूफ़ी शब्द के अलग-अलग अर्थ भी हैं,लोगों के अलग-अलग मत भी हैं…|
ग्रीक-यूनानी भाषा के मूल शब्द ‘सोफ़िया’ से निकला है ‘सूफ़ी’ शब्द| सोफ़िया का अर्थ है-विवेक,यानि जिसके पास बोध हो,ज्ञान हो,होश है,सार हो…| बाह्य ज्ञान तो सरलता से अर्जित किया जा सकता है,परंतु आंतरिक सत्य का ज्ञान प्राप्त करने के लिए मन की अपनी माननीय वस्तु पर पूर्णतः एकाग्र होना आवश्यक होता है| उस दशा में किसी भी वस्तु का स्वाद न लेते हुए,किसी विशिष्ट वस्तु की अवधारणा न करते हुए अपने को शून्यावस्था में रखते हुए साधक की आत्मा यह अनुभव करती है कि,उसके पास सब-कुछ है,वह पूर्णकाम हो चुकी है|
सूफ़ी यानि शुद्धता,यानि पाकीजगी जिसके मन में किसी के प्रति मैल,द्वेष,जलन,प्रतिस्पर्धा नहीं है,जिसका मन बिल्कुल साफ हो,जो किसी को जानकर तो क्या अनजाने में भी दुख नहीं देता,जिसका उठना-बैठना एक तपस्या है,एक साधना है, जिसका हर पल परीक्षा का पल है|
सूफ़ी शब्द का सरल अर्थ है `प्रेम साधना का साधक`…|परमानंद की स्थिति में पहुँचकर,ईश्वर से अचन्चल और एकांतभाव से मिलकर साधक एक अभंग शांति और निःस्तब्धता का आनंद लेता है| साधक अपने लक्ष्य के आगे आत्मसमर्पण कर देता है और लक्ष्यमय बन जाता है|
ईश्वर का अस्तित्व एक है और उस एक अस्तित्व से अनेक अस्तित्वों का जन्म होता है,और वही अस्तित्व अनेक रूपों में अपने को प्रकट करता रहता है| फिर भी उस मूल अस्तित्व में किसी प्रकार की कोई कमी नहीं आती,वह अनेकता के मध्य भी एक होकर रहता है,विकास के दौरान भी वह एकीभूत रहता है,विभेद में भी वह पूर्ण रहता है…जो वास्तविक है,सत्य है, वह ‘न तो आत्मा है…न मन…उसकी न कल्पना है न मति… न शुद्ध-बुद्धि है,न धारणा,वह न अभिवयक्त हो सकता है,न उसकी कल्पना की जा सकती है,वह न संख्या है न व्यवस्था,न वह महानता है,न लघुता,जो हर परिभाषा से ऊपर है,जो हर कल्पना से परे है…वही सूफ़ी है,वही सन्त है…|
एक और अर्थ में सुफ़्फ़ा या सुफ़ जिसका अर्थ है ‘चबूतरा’…|
हर पवित्र नगर के मंदिर और मस्जिद के सामने चबूतरे पर इकठ्ठे होकर परमात्मा का,अपने ईष्ट का,अपने रब का चिंतन करने वाले ही सूफ़ी कहलाए,संत कहलाए…|
आत्मज्ञान के लिए जो लोग मठों और आश्रमों में प्रवेश करते हैं,तो ऐसा नहीं है कि वे जीवन से डरते हैं या वे कायर हैं… नहीं,वे चाह्ते हैं कि,जब भी वे कोई उत्तरदायित्व सम्भालें,तब उनमें आशा की ज्योति कभी न बुझे,प्रत्येक कार्य में वे दिव्यता के दर्शन करें| दुःख को गम्भीरतर शांति के साथ स्वीकार कर सकें और पवित्र भावना के सौन्दर्य के साथ अपना सकें|
बाह्य क्रिया का विलोम अक्रिया नहीं है,अपितु आंतरिक क्रिया है|
महावीर बुद्ध एक बार काशी के एक धनी किसान के पास गए और उन्होनें उससे भिक्षा मांगी| किसान ने बुद्ध से कहा-`मैं खेत जोतता-बोता हूँ,तब खाता हूँ और तुम हो कि बिना खेत को जोते-बोए खाने की इच्छा रखते हो!` बुद्ध ने उत्तर दिया कि मैं तुम्हारी इस खेती से भी अधिक महत्वपूर्ण आत्मा की खेती करने में जुटा हुआ हूं| `श्रद्धा बीज है,तपस्या वर्षा का फ़ल है,ज्ञान मेरा हल और ‘जुआठ’ है,विनय हल की ‘हरिस’ है,मन ‘नरैली’ है(वह रस्सी जिससे जुआठ और हरिस को संलग्न किया जाता है),विचारशीलता मेरे हल का ‘फाल’ और ‘पैना’ है|प्रयास मेरी सवारी है,जो बिना पीछे लौटे,मुझे सतत उस स्थान की ओर ले जा रही है,जहां पहुँचकर कोई व्यक्ति परिताप नहीं करता`….| इस प्रकार यह खेती होती है,जिसमें अमरता की फ़सल पैदा होती है|
`जो पापकर्मों से निवृत्त नहीं हुआ है,जिसकी इंद्रियां शांत नहीं है,जो असमाहित है और जिसका चित शांत नहीं है,वह परमात्मा को आत्मज्ञान या विवेक द्वारा प्राप्त नहीं कर सकता|
एक पवित्र श्लोक में कहा गया है कि,हम देह,इंद्रियों,वाणी और विचार को उसमें निवास करनेवाली अनंत आत्मा के उपयुक्त बनाएं| जिन पृथ्वी,जल,अग्नि,वायु और आकाश-पंचभूतों से शरीर का निर्माण हुआ है,वे पवित्र हों…मेरे विचार,वाणी,क्रिया पवित्र हो…मेरी आत्मा पवित्र हो,ताकि ऐसी प्रकाशमान आत्मा बन सकें जिस पर वासना और पाप के कलुष का कोई प्रभाव न पड़ सके|`
जिस प्रकार कमल-पत्र पर जल नहीं स्पर्श करता,उसी प्रकार ज्ञानी पुरूष को पाप स्पर्श नहीं करता,तब उसका यह तात्पर्य नहीं होता कि साधु या संत पुरुष पाप करके भी उससे मुक्त रहता है,अपितु उसका अर्थ यह होता है कि जो व्यक्ति पार्थिव आसक्तियों से स्वतंत्र होता है,वह पाप करने के सभी प्रलोभनों से भी स्वतंत्र रहता है| इच्छा के वशीभूत रहते हुए मनुष्य वैसा ही कार्य करेगा,जैसा वह बनना चाहता है,इसलिए ऐसा माना जाता है कि इंसान की जिंदगी में सबसे बडी रुकावट यह देह, दिल और दौलत ही है,इसलिए जो सदा एक ही वस्त्र पहनते थे ,स्वंम को दरिद्र रखते थे,ताकि उनके भीतर ‘और’ की माँग न बढ़े,या अन्य सांसारिक वस्तुओं की माँग न बढ़े…वही सूफ़ी कहलाए,वही संत कहलाए…क्योंकि उनकी नज़र में देह एक ऐसी पारदर्शक वस्तु बन जाती है,जिसके भीतर से आत्मा उद्भासित होती है| वह भीतर जलने वाली ज्योति को प्रभासित करने वाले शीशे की भाँति होती है,अतः इस देह की अर्थात काम-वासना की भावना जगाई तो वह अपने प्रियतम,अल्लाह के मिलन से चूक जाएंगे| इसलिए वो मैले-कुचैले फ़कीर के रूप में रहते थे,ताकि न कोई उनकी ओर देखेगा,न कोई उनमें उत्सुक होगा| स्वयं को परमात्मा के हवाले करने के लिए प्रभु प्रेमियों ने जो रास्ता इख्तियार किया,जो रास्ता अपनाया,जो रूप-रंग ढाला,जो जीवनशैली अपनाई,वही सूफ़ी कहलाए…वही संत कहलाए…|
तुर्किस्तान में सूफी को लेकर एक प्रसिद्ध कहावत है-`जो दिख गया वह सूफ़ी नहीं,जो पहचाना गया वह सूफ़ी नहीं…`| किसी ने सूफ़ी संत मंसूर से पूछा-`सूफ़ी संतों की पहचान क्या है?` संत मंसूर ने हँसकर कहा-`जिसे शब्दों में कहा जाए,वो सूफी नहीं होता`|
पृथ्वी की कोई भी वस्तु न तो सर्वांश में पूर्ण है,और न सर्वांश में अपूर्ण| जिन्होनें पूर्णता के दर्शन कर लिए और जो पूर्णता की वृद्धि तथा अपूर्णता की न्यूनता के लिए सतत सचेष्ट रहते हैं, …वही सूफ़ी कहलाते हैं,वही संत कहलाते हैं…|
जब मनुष्य को ईश्वर का बोध होता है,तब वह अमूर्त से मूर्त की तरफ जाता है,उसके सत्य के प्रकाश में वह अपने जीवन को संयमित करता है,और तब वह पूर्ण मनुष्य बन जाता है… मनुष्य की इसी पूर्ण अवस्था को सूफ़ी कहते हैं,संत कहते हैं|
जिन्हें परमात्मा की झलक मिल जाती है,फिर वो समझते हैं कि ईश्वर भक्ति का जीवन ही हमारे जीवन की पूर्णता है…वही सूफ़ी कहलाते हैं,वही संत कहलाते हैं|
सूफियों का प्रेम ही धर्म है…और प्रेम ही पूजा है…| जीने-मरने, सीखने-सम्भलने के सारे रास्ते दिल से होकर ही गुजरते हैं|
सूफियों का नाता हृदय का नाता है| प्रेम ही उनकी साधना है… प्रेम ही उनकी समाधि है…|
भौतिक वैश्वीकरण से आज शांति,समानता,समृद्धि की अपेक्षा घोर अशांति,अत्यधिक असमानता एवं अविकसित देशों में भूखमरी,बरोजगारी एवं बेकारी बढ़ी है,तो धर्म के नाम पर सभ्यता-संघर्ष के रक्तिम मुहाने पर विश्व आ खड़ा,दिन-रात सहमा हुआ काँप रहा है|
त्रिकालदर्शी कबीर जी ने अतीत के साथ अपने समकालीन जीवन तथा भावी विश्व के लिए भविष्यवाणी भी कर दी थी ,जो आज सत्य सिद्ध हो रही है| विनाश के कगार पर खड़ी मानव जाति को केवल और केवल सन्त ही बचा सकते हैं- `आग लगी आकाश में,झर-झर परे अंगार| संत न होते जगत में,जल जाता संसार||’
#नसरीन अली ‘निधि’
परिचय : नसरीन अली लेखन में साहित्यिक उपनाम-निधि लिखती हैं। जन्मतिथि १० नवम्बर १९६९ और जन्म स्थान-कलकत्ता है। आपका वर्तमान निवास श्रीनगर (जम्मू और कश्मीर)स्थित हब्बा कदल है। निधि की शिक्षा बी.ए. ,डिप्लोमा रचनात्मक कला(पाक कला एवं कला कौशल) है। इनकी सम्प्रति देखें तो हिंदी कम्प्यूटर ऑपपरेटर एवं ध्वनि अभियंता (रेडियो कश्मीर-श्रीनगर) हैं। सामाजिक तौर पर सक्रियता से वादी’ज़ हिंदी शिक्षा समिति(श्रीनगर) बतौर अध्यक्ष संचालित करती हैं। साथ ही नसरीन क्लॉसेस(यूनिट,शासकीय पंजीकृत) भी चलाती हैं। लेखन आपका शौक है, इसलिए एक साहित्यिक पत्रिका की सहायक सम्पादक भी हैं। विशेष बात यह है कि,कश्मीर के अतिरिक्त भारत के विभिन्न अहिंदीतर प्रांतों में मातृभाषा हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिए कार्यरत हैं। नसरीन अली को आकाशावाणी एवं दूरदर्शन श्रीनगर से सफल हिंदी कवियित्री,उदघोषक तथा कार्यक्रम संचालक का सम्मान प्राप्त है। साथ ही अन्य संस्थानों ने भी आपको पाक कला एवं कला कौशल के लिए सम्मानित किया है। लेखन में संत कवयित्री ललद्यत साहित्य सम्मान,अपराजिता सम्मान,हिंदी सेवी सम्मान और हिन्दी प्रतिभा सम्मान भी हासिल हुआ है। आपकी नजर में लेखन का उद्धेश्य-हिन्दी साहित्य के प्रति लगाव,उसके प्रचार-प्रसार,उन्नति,विकास के प्रति हार्दिक रुचि है।
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