केन्द्रीय हिन्दी समिति की 31वीं बैठक 6-09-2018 को माननीय प्रधान मंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी की अध्यक्षता में उन्हीं के निवास पर संपन्न हुई। इस बैठक में गृह मंत्री श्री राजनाथ सिंह के अतिरिक्त मानव संसाधन विकास मंत्री, रेल मंत्री, सूचना एवं प्रसारण मंत्री, संचार एवं सूचना प्रौद्योगिकी मंत्री, गृह राज्य मंत्री, कार्मिक, लोक शिकायत एवं पेंशन राज्य मंत्री; गुजरात, हिमाचल प्रदेश तथा अरुणाचल प्रदेश के मुख्य मंत्री, संसदीय राजभाषा समिति के सांसद-संयोजक और भारत के विभिन्न भागों से आए आठ विद्वान (गैर-सरकारी सदस्य) थे। समिति के सदस्य-सचिव और राजभाषा विभाग,भारत सरकार के सचिव श्री शैलेश ने समिति का परिचय दिया। गृह मंत्री श्री राजनाथ सिंह ने प्रधान मंत्री और सदस्यों का स्वागत करने के बाद बैठक का संचालन किया। इसके बाद केंद्रीय हिन्दी निदेशालय द्वारा प्रकाशित गुजराती-हिन्दी कोश का लोकार्पण माननीय प्रधान मंत्री ने किया। तत्पश्चात, सदस्य-सचिव श्री शैलेश ने समिति की 30वीं बैठक का कार्यवृत्त प्रस्तुत किया जिसको संपुष्ट किया गया। इसके बाद वर्तमान समिति के सदस्यों द्वारा दिए गए प्रस्तावों में से मात्र तीन गैर-सरकारी सदस्यों के प्रस्ताव रखे गए। इन प्रस्तावों में मेरे चार प्रस्ताव थे, जबकि मैंने कई प्रस्ताव भेजे थे। प्रो दिलीप कुमार मेधी (गुवाहाटी) के दो प्रस्ताव थे और प्रो गिरीश्वर मिश्र (वर्धा) का एक ही प्रस्ताव रखा गया था। राजभाषा विभाग ने बैठक से पहले इन प्रस्तावों पर विभिन्न मंत्रालयों और राज्य सरकारों से अपनी-अपनी टिप्पणी प्राप्त कर ली थी। बाद में गृह मंत्री ने चर्चा के लिए अनुमति प्रदान की। संसदीय राजभाषा समिति के उपाध्यक्ष श्री सत्य नारायन जटिया तथा समिति के तीन संयोजकों – श्री प्रसन्न कुमार पाटसाणी, अजय मिश्र टेनी और श्री हुकुम नारायण सिंह यादव ने भारत सरकार के कार्यालयों, उपक्रमों, बैंकों, निगमों आदि में हिन्दी की स्थिति बताते हुए उनमें आ रही कठिनाइयों का ब्योरा दिया। श्री पाटसाणी ने न्यायालयों में हिन्दी को लागू करने की बात भी कही।
सांसदों के वक्तव्यों के बाद गृह मंत्री ने मुझे (प्रो.गोस्वामी) को अपना वक्तव्य देने के लिए कहा। मैंने प्रधान मंत्री, गृह मंत्री और अन्य सदस्यों को संबोधित करते हुए यह निवेदन किया कि मैंने एक साल पहले 25 प्रस्ताव भेजे थे और अभी 3-4 दिन पहले नौ प्रस्ताव और भेजे थे। पहले के 25 प्रस्तावों में से चार प्रस्ताव कार्यसूची में दिए गए हैं। अपने प्रस्तावों पर चर्चा करते हुए मैंने कहा कि हाई स्कूल के स्तर पर सभी स्कूलों में शिक्षा माध्यम के रूप में मातृभाषा को अनिवार्य किया जाए, क्योंकि मातृभाषा से बच्चों की सर्जनात्मक शक्ति का विकास होता है और विषय को समझने में आसानी होती है। साथ ही हिंदीतर भाषी राज्यों में विषय के रूप में हिन्दी अनिवार्यत: पढ़ाई जाए ताकि संविधान की अपेक्षा के अनुसार हिन्दी संघ की राजभाषा का दायित्व निभा सके।
दूसरे प्रस्ताव पर मैंने कहा कि देश में कुछ राज्यों में केंद्रीय एवं स्टेट विश्वविद्यालयों और तकनीकी संस्थानों में चिकित्सा, इंजीनियरिंग, टेक्नॉलॉजी, विज्ञान आदि में शिक्षा माध्यम की व्यवस्था अंग्रेज़ी के स्थान पर हिन्दी या मातृभाषा में की जाए। साथ ही इन विषयों की शिक्षण-सामग्री भी हिन्दी एवं भारतीय भाषाओं में तैयार कराई जाए। इससे छात्रों की सर्जनात्मक शक्ति के साथ-साथ उन्हें विषय को समझने मे सहायता मिले गी और इन विषयों का अधिकाधिक विकास भी होगा। इसी के साथ मैंने इस बात को भी उठाया कि महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा और अटल बिहारी वाजपेयी हिन्दी विश्वविद्यालय, भोपाल में इन विषयों का हिन्दी में प्रशिक्षण और अनुवाद हो रहा है, लेकिन इन्फ्रास्ट्रक्चर, स्टाफ और प्रयोगशालाओं के न होने के कारण बहुत ही असुविधा और अड़चन पड़ रही है। यदि यह व्यवस्था की जाती है तो इन विश्वविद्यालयों में सुचारू रूप से काम हो पाए गा।
तीसरे प्रस्ताव पर बोलते हुए कहा कि अधिकतर प्रोफेशनल पाठ्यक्रम अंग्रेज़ी में पढ़ाए जाते हैं, लेकिन हिन्दी या अन्य भारतीय भाषाओं में ये पाठ्यक्रम नगण्य हैं। यदि हिन्दी या भारतीय भाषाओं में प्रोफेशनल कोर्स नहीं होंगे तो युवा वर्ग अपना प्रोफेशनल कॅरियर नहीं बना पाए गा। इसी बात को आगे बढ़ाते हुए कहा कि हमें अपनी भाषाओं को रोजगारपरक बनाना है ताकि युवा वर्ग अपनी भाषाओं की ओर आकर्षित हो सके।
चौथे प्रस्ताव में ज़्यादातर वेबसाइट केवल अंग्रेज़ी में होने की बात को उठाया। अगर हिन्दी में है भी तो वे अधिकतर गूगल से अनूदित होते हैं जो प्राय: सही नहीं होते। इनकी वेबसाइट भी अलग-अलग हैं। इस लिए कार्यालयों की सामग्री हिन्दी या अंग्रेज़ी के बजाय द्विभाषिक हों तो उनका उपयोग अवश्यकतानुसार किया जा सके गा।
इसके बाद मैंने अपने अलग से भेजे गए प्रस्तावों का उल्लेख करते हुए कहा कि भारत सरकार के 18 मंत्रालयों/विभागों में निदेशक (राजभाषा) के स्वीकृत पद हैं। इन 18 पदों में से 14 मंत्रालयों में निदेशक के पद काफी समय से खाली पड़े हैं और इस समय केवल 4 पद भरे हुए हैं। इन्हें तत्काल भरने का अनुरोध करते हुए कहा कि इन पदों के अभाव में राजभाषा हिन्दी के विकास और उन्नयन में रुकावट आ रही है। इसके साथ यह भी अनुरोध किया कि राजभाषा विभाग के प्रशिक्षण संस्थान और अनुवाद ब्यूरो जैसे अधीनस्थ कार्यालयों में कार्यरत प्राध्यापक, अनुवादक, सहायक निदेशक आदि कर्मचारियों और अधिकारियों को पिछले 20-25 वर्षों से कोई पदोन्नति नहीं दी गई है। इससे इन अधिकारियों में असंतोष, हताशा और फ्रस्ट्रेशन पैदा हो रहा है। इनकी पदोन्नति की प्रक्रिया तुरंत लागू की जाए ताकि राजभाषा के विकास में गति आ सके। मानव संसाधन विकास मंत्रालय के अधीनस्थ कार्यालय केंद्रीय हिन्दी निदेशालय के बारे में भी मेंने निवेदन करते हुए कहा कि जिस निदेशालय के शब्दकोश का लोकार्पण अभी-अभी प्रधान मंत्री जी ने किया है, उसमें सन् 2007 से निदेशक का पद रिक्त पड़ा है। इसमें समय-समय पर किसी अन्य अधिकारी को दो-तीन वर्ष के लिए अतिरिक्त प्रभार दिया जाता है जिसके कारण काम में गति नहीं आ रही। इसके साथ ही मैंने यह भी कहा कि इसी निदेशालय में कई अधिकारियों और कर्मचारियों की सेवानिवृत्ति के बाद कई पद काफी समय से रिक्त पड़े हैं, उन्हें अभी तक भरा नहीं गया। स्थायी निदेशक और स्टाफ की कमी के कारण निदेशालय के कार्यों की गति में भी काफी कमी आ गई है। इसलिए इस संबंध में तत्काल कार्रवाई करने की आवश्यकता है। अंत में मैंने प्रधान मंत्री जी से यह भी निवेदन किया कि आप देश के विकास में इतना परिश्रम कर रहे हैं, इस लिए हिन्दी और भारतीय भाषाओं का विकास और प्रयोग होगा तो देश के विकास में और अधिक सहायता मिले गी।
हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा के कुलपति प्रो. गिरीश्वर मिश्र और प्रो. गोस्वामी का ऑन-लाइन सेवाओं को हिन्दी में उपलब्ध कराने का प्रस्ताव एक-साथ था। बैठक में प्रो. मिश्र ने हिन्दी के संवर्धन और उसमें गति लाने के लिए ‘हिन्दी अध्ययन हेतु अंतर-विश्वविद्यालयी केंद्र’ बनाने का प्रस्ताव रखा। साथ ही हिन्दी भाषा तथा अन्य भारतीय भाषाओं के परस्परिक अनुवाद का केंद्र स्थापित करने और उसमें हिन्दी विश्वविद्यालय को न्यूक्लियस (Neucleus) विश्वविद्यालय के रूप में रखने का प्रस्ताव प्रस्तुत किया। महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय की गतिविधियों के बारे में बताते हुए विश्वविद्यालय में अपेक्षित संसाधनों और भौतिक सुविधाओं के न होने के कारण उसके समुचित संचालन में आ रही कठिनाई की बात रखते हुए मिश्र जी ने उसे अन्य विश्वविद्यालयों की भाँति सुविधाएं प्रदान करने का अनुरोध भी किया।
कोच्चिन के प्रो. अरविंदाक्षन ने कहा कि विज्ञान, प्रौद्योगिकी आदि क्षेत्रों के विशेषज्ञों को भी बैठक में आमंत्रित किया जाए ताकि वे हिन्दी के परिप्रेक्ष्य में इन विषयों की आवश्यकता को बता सकें। गुवाहाटी के प्रो. दिलीप कुमार मेधी ने प्रत्येक विश्वविद्यालय के हिन्दी शोध-प्रबंध (पी.एच-डी) का माध्यम हिन्दी ही रखने का प्रस्ताव रखा, क्योंकि कुछ विश्वविद्यालयों में हिन्दी का शोध कार्य अंग्रेज़ी में होता है। साथ ही देश के हर महाविद्यालय में हिन्दी विभाग खोलने की व्यवस्था करने के लिए आग्रह भी किया। दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रो. मोहन ने कहा कि विश्वविद्यालयों में हिन्दी के कई पद रिक्त पड़े हैं,इन्हें तुरंत भरने की व्यवस्था की जाए। इसके साथ प्रो. मोहन विश्व हिन्दी सम्मेलनों की चर्चा करते हुए यूरोप में भी हिन्दी सम्मेलन आयोजित करने का प्रस्ताव रखा। प्रो जोहरा अफजल ने कश्मीर के स्कूलों में हिन्दी की दुर्दशा पर चर्चा करते हुए उस राज्य में हिन्दी को गंभीरता से लागू करने की बात कही। सुश्री प्रतिभा राय ने उड़ीसा के विश्वविद्यालयों में हिन्दी की उपेक्षा पर चर्चा करते हुए हिन्दी शिक्षण पर समुचित ध्यान देने पर बल दिया। प्रो. निर्मला जैन ने यह अपील की कि हिन्दी के प्रति अति उत्साह न दिखाते हुए अन्य भारतीय भाषाओं को भी ध्यान में रखा जाए।
सभी वक्तव्यों के बाद माननीय प्रधान मंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने अपने अध्यक्षीय भाषण में कहा कि हिन्दी के स्वरूप को क्लिष्ट न बनाया जाए। सामाजिक हिन्दी (अर्थात बोलचाल की हिन्दी) और कार्यालयी हिन्दी में अधिक अंतर न हो और इन दोनों में अधिक निकटता होनी चाहिए। हिन्दी में अन्य भारतीय भाषाओं से पारिभाषिक शब्द लेने चाहिए ताकि हिन्दी देश के सभी लोगों के लिए सहज और सुगम हो सके। उन्होंने यह भी कहा कि बैठक में जो बातें रखी गई हैं, उन्हें कार्यान्वित करने का प्रयास किया जाए।
अंत में गृह राज्य मंत्री श्री किरण रिजिजु ने धन्यवाद प्रस्ताव पारित किया। बैठक में सभी सदस्यों ने अपनी-अपनी बात तो रखी, लेकिन चर्चा-परिचर्चा नहीं हो पाई।
बैठक की समाप्ति के बाद मैंने प्रधान मंत्री जी को अपना ‘’अंग्रेज़ी-हिन्दी पदबंध कोश’’ भेंट करते हुए कहा कि यह पदबंध पहला द्विभाषिक कोश है और दिगंबर जैन मुनि आचार्य विद्या सागर ने इस कोश को पढ़ कर मुझे आशीर्वाद भी दिया। इसके अतिरिक्त मैंने अपने दो आलेख ‘शिक्षा के माध्यम की भाषा: मातृभाषा’ और ‘राष्ट्र, राष्ट्रीय चेतना और राष्ट्रभाषा हिन्दी’’ देते हुए कहा कि अगर आपके पास समय हो तो इन्हें पढ़ लें। यह मेरे लिए हर्ष का विषय है कि उन्होंने कहा कि मैं इन्हें ज़रूर पढ़ूँगा। कुछ मिनटों की यह व्यक्तिगत बातचीत बड़ी सुखद रही।
प्रो. कृष्ण कुमार गोस्वामी