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निकला सूर्य बिखेरी किरणें
भोर उठ गया,
फिर भी बेंच पड़ी है खाली।
हरी दूब के गलियारे में
खेल रही है धूप कबड्डी,
क्यारी में गुलमोहर खिलता
खोल रहा कलियों की गड्डी।
पेड़ों की पुलुई पर चौसर,
खेल रही है
पासा फेंक सुनहरी लाली।
लगता तो है कुछ-कुछ ऐसा
हवा रात भर गाई झाँझी,
नदी किनारे खड़ा रह गया
नौका लेकर जीतन माँझी।
खुली खिड़कियों से चंदोवा
तारों के सँग,
रही निरखती छिप घरवाली।
अभी घोंसलों में दुबके हैं
थके पंख जो कल घर लौटे,
नहीं दिखाई कहीं दे रहे
गोदी में चिपटे कजरौटे।
कलरव का संगीत थमा है
कहाँ रमा है,
गई न अब तक खेत कुदाली॥
#शिवानन्द सिंह ‘सहयोगी’
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