मधुबन जीवन,एक महकता,
तपती धरा तब नीर बरसता।
राही तू क्यों, छांव तलाशे?
आलौकित कर जीवन पथ को,
जो मिल जाए,तू अपना रे
राह पर अपनी बढ़ता जा रे।
सुख की रातें गन्ध मारती,
दुःख ही है सुखों का सारथी।
जलकर बाती उजियारे पाती,
मिले न इच्छित तो जश्न मना।
रीत नई जग-जीत चला रे,
राह पे अपनी,बढ़ता जा रे॥
जिसने जितना काम किया,
उतना उसने जहर पिया।
धूप सहन कर, मेघ दिया,
सरिता बन तू बहता जा।
जग के मन में प्रीत बसा रे,
राह पर अपनी बढ़ता जा रे।
देख धरा ने धारा कितना,
और गगन ने वारा कितना?
परहित जीना,मत बिसरा
रीत वही तू भी ले अपना,
लीक अपनी खुद बनता जा रे।
राह पे अपनी….॥
जिसने खुद को जीत लिया,
उसने जग को मीत किया।
शिव ने हलाहल के बदले,
अमिय जगत को दान किया।
निज पालक के वचनों हित रे,
राज्य राम ने त्याग दिया रे।
मात-पिता की सेवा में,सुन-
श्रवण ने जीवन वार दिया।
वीर शिवाजी ने धरती को,
बलिदानों से आरक्त किया।
बापू,नेहरु औ सुभाष बन रे।
तू भी अपना नाम बना रे॥
#विजयलक्ष्मी जांगिड़
परिचय : विजयलक्ष्मी जांगिड़ जयपुर(राजस्थान)में रहती हैं और पेशे से हिन्दी भाषा की शिक्षिका हैं। कैनवास पर बिखरे रंग आपकी प्रकाशित पुस्तक है। राजस्थान के अनेक समाचार पत्रों में आपके आलेख प्रकाशित होते रहते हैं। गत ४ वर्ष से आपकी कहानियां भी प्रकाशित हो रही है। एक प्रकाशन की दो पुस्तकों में ४ कविताओं को सचित्र स्थान मिलना आपकी उपलब्धि है। आपकी यही अभिलाषा है कि,लेखनी से हिन्दी को और बढ़ावा मिले।