अभिलाषा

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कह लो पीर मेरे मनमीत।
सुन  सहती  सब हृदय की भीत॥
यह  अभिलाषा  है  जीवन   की,
रहे अटूट आजीवन  प्रीत॥
अम्बर से आग बरसती   है,
उबल रहा है मन  मानव  का।
नेह   प्रेम   का  घट  छलका  दो,
कर  दो  शीतल  जीवन  सबका॥
करबद्ध    यही   विनती   विनीत।
कह लो  पीर मेरे   मनमीत।
प्यासी   वसुधा  सोच   मग्न   है,
बनी   याचिका  क्यों   बैठी   हूँ।
आतप   की   इक  ओढ़  ओढ़नी,
क्यों  जल-जलकर  मैं  ऐंठी   हूँ॥
प्रिये! सघनता  क्यों  गई   रीत।
कह लो पीर मेरे मनमीत।
अभिलाषा  है यही   प्रकृति  की,
हो   शुष्क   नहीं   लतिका  कोई।
सुरभित  होकर  कण कण चहके,
चिरकाल रहे विपदा   सोई॥
मोहक मधुर गूँजे    संगीत।
कह लो पीर मेरे मनमीत।
लोभी   कटु  कलुषित  मानव  ही,
घात   करे   छुपकर  अपनों   पर।
घाव    बना   शुचि   प्रेम   मिटाए,
गरल   गिराता   है   स्वप्नों    पर॥
गढ़ता   कैसी   नित  मनुज  जीत।
कह लो पीर मेेरे मनमीत।
लोक-अलौकिक   नर  नारी यह,
सब अलख   ईश   की   माया  है।
कभी   न   भूलो  मद  में  पड़कर,
यह   मिट्टी   की   ही   काया है॥
पल  पल  जाए न  यूँ  ही   बीत।
कह    लो    पीर   मेरे   मनमीत।
पीर    निरन्तर    हँसकर   सहना,
मुस्कान   ‘अधर’   पर   है  गहना।
आहत   जीवन   की  ज्योति  बने,
मेरा जीवन मेरा  कहना॥
हो   सत्य   शाश्वत  यह   नवगीत।
कह   लो    पीर    मेरे    मनमीत।
                                                    #शुभा शुक्ला मिश्रा ‘अधर’

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