राणा प्रताप जैसे वीर सदियों में जन्म लेते है

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चित्तौड़ के राज घराने में उदयसिंह व जेवन्ता बाई के घर एक विलक्षण बालक का जन्म होता है। इसका नाम प्रताप रखा गया। जेवन्ता बाई जन्म से ही प्रताप को मातृभूमि के प्रति कर्तव्य का पाठ सिखाती है, अफगान शासक शेर शाह सूरी के अधीन चित्तौड़ पर उस समय उदयसिंह का शासन था। युद्ध में उदयसिंह को परास्त करके शेर शाह सूरी ने अपनी सैन्य छावनी चित्तौड़ में रखकर किले व राजकोष को अपने अधीन किया, किंतु शासन की बागडोर उदयसिंह के पास रहने दी। किले की प्राचीर पर लहराता हरा ध्वज जेवन्ता बाई को कभी अच्छा नही लगा। उनके मन में स्वाधीनता की टीस सदैव बनी रहती थी। माँ की इस पीड़ा को प्रताप ने जान लिया था, अब तो स्वाधीनता का संकल्प उनके मन में भी उमड़ने लगा। गुरु राघवेंद्र से गुरुकुल में शिक्षा में पारंगत होने के बाद प्रताप ने सर्व प्रथम शम्स खान के सभी षडयंत्रो को ध्वस्त करके अपने पिता उदयसिंह के साथ मिलकर चित्तौड़ को स्वतंत्र किया। चित्तौड़ की इस विजय से प्रताप की कीर्ति समस्त दिशाओं में फेल गई थी। इस समय मुगलों का भारत में आगमन हो चुका था, दिल्ली के तख्त पर जलालुद्दीन अकबर का कब्जा था। यूं तो अभी अकबर बहुत छोटा था, उनके हर युद्ध को छल कपट और धोखे से जितने का काम बैरम खान ने किया। मुगलों ने युद्ध के सभी नीति नियमों को कभी नही माना। इसी कारण उनका शासन बढ़ता जा रहा था।

इस तरफ अफगान हुकूमत को उखाड़ फेंकने के बाद मुगलों का खतरा मेवाड़ पर मंडराने लगा था, बैरम खान के नेतृत्व में अकबर के भेजे हुए फौजी दस्ते को प्रताप रास्ते मे ही रोक लेते है, उनकी रक्षा के लिए उदयसिंह जी को आना पड़ता है, बाद में बैरम खान बड़ी सेना लेकर चित्तौड़ पर आक्रमण करने पहुचता है जिसे राणा पुंजा के क्षेत्र से होकर निकलना रहता है, प्रताप व बैरम खान दोनों ही राणा पुंजा से सहयोग मांगने पहुचते है। प्रताप बप्पा रावल की दिव्य तलवार तो बैरम खान धन दौलत लेकर राणा पुंजा से सहयोग की अपेक्षा करते है। राणा पुंजा द्वारा परोसा गया वन्य भोजन बैरम खान ठुकरा देते है, जबकि प्रताप उस भोजन को आदर के साथ जमीन पर बैठकर ग्रहण करते है, यह बात राणा पुंजा के ह्रदय में घर कर जाती है, राणा पुंजा प्रताप के द्वारा भेंट की गई बप्पा रावल की तलवार व उनकी देशभक्ति के प्रति समर्पित होकर मेवाड़ का साथ देने के लिए सहर्ष तैयार हो जाते है।

बैरम खान व मुगल सेना के आक्रमण को प्रताप राणा पुंजा के सहयोग से असफल कर देते है, बैरम खान को बेइज्जत होकर भागना पड़ता है। आगे भी प्रताप ने अपने बुद्धि व बाहुबल से कई दुर्ग जीते।

यहां राजस्थान की अधिकतर रियासतें मारवाड़ से मैत्री सन्धि करके उसके पक्ष में थी। कुछ ही रियासतों ने मेवाड़ से मैत्री की थी। ऐसे में ताकतवर मुगल सत्ता से टकराने के लिए मेवाड़ को अधिक सुद्रढ़ बनाना आवश्यक था। ऐसे विकट समय में मारवाड़ व मेवाड़ के बीच युद्ध की नोबत आ जाती है। प्रताप अपने व्यवहार कौशल से मारवाड़ नरेश मालदेव जी का ह्रदय जितने में सफल हो जाते है, मेवाड़ व मारवाड़ मित्र बनते है। मारवाड़ के छोटे कुंवर चन्द्रसेन राणा प्रताप के साथ कई युद्धों में हिस्सा लेते है।

भील राजाओं व सेना ने भी महाराणा प्रताप की आत्मीयता से प्रभावित होकर मेवाड़ के सहयोग में युद्ध लड़े। इसी कारण मेवाड़ की राज्य चिन्ह में राजपूत व भील साथ दिखाई देते है। राणा पुंजा व उनके बाद उनके पुत्र राणा केता ने प्राण पण से महाराणा के साथ युद्ध में भाग लिया। जब जब भी कोई शत्रु मेवाड़ की ओर बढ़ा उसे पहले वन व जंगलों में भील सरदारों का भीषण प्रतिरोध झेलना पड़ा। कई शत्रुओं को तो वन से वापस लौटना पड़ा।

चित्तौड़ पर अकबर हजारों की सेना से भीषण आक्रमण करता है, अकबर की तोपों के गोले के आगे मेवाड़ का दुर्ग सिंह की भांति निडर खड़ा था, मुगल तोप व बंदूक का उपयोग कर रहे थे, जबकि मेवाड़ी सैनिक तीर, भाले , तलवार से युद्ध कर रहे थे। कई षड्यंत्र के बाद भी अकबर को बार बार पराजित होना पड़ा। एक बार लगा जैसे चित्तौड़ गया, उसी समय बंदूकची इस्माइल खान अपने 1000 बंदूकधारियों के साथ प्रताप के सहयोग में आते है, और विजय फिर मेवाड़ के पक्ष में आ जाती है। अकबर को बार बार परास्त करने के बाद भी 3 माह तक चले घेराव से चित्तौड़ व उसमें रहने वाले हजारों नागरिकों के भोजन व्यवस्था के कारण अन्न कोष रिक्त हो जाता है, फिर बार बार अकबर को बाहर से मिलने वाले सैन्य सहयोग के कारण वह हर बार नए षड्यंत्र से हमला करता। अंत में चित्तौड़ में एक बार फिर साका व जौहर होता है, चित्तौड़ के कई पराक्रमी वीर लड़ते हुए अपने प्राणों की आहुति दे देते है, राणा चूंडावत, जयमल जी, वीर कल्ला, ईश्वर दास, पत्ता आदि कई धुरंदर इस युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुए। इस युद्ध को निरंतर जारी रखने के लिए सेनापति,सामंत, सेना नायक सभी ने एकमत होकर राज परिवार व प्रताप को बेहोश करके दुर्ग से बाहर भेज दिया था।

प्रताप को होश आने पर उनके क्रोध का ठिकाना नही रहता। उनकी माता जेवंता बाई सा उन्हें संभालती है और पुनः नए दुर्ग के निर्माण को प्रेरित करती है। 3 साल के अथक परिश्रम के बाद प्रताप उदयपुर नगर को राजधानी बनाकर उसका निर्माण करने में सफल हो जाते है।

अपनी बहन गोंडवाना की रानी दुर्गावती की सहायता को प्रताप स्वयं गोंडवाना पहुचते है, उनकी बहन कमला को मुगलों की कैद से स्वतंत्र करवाते है, यह पहली बार था जब आगरा के महल में घुसकर कोई अकबर की सेना को परास्त करके वापस आया। अपनी बहन को बचाने केलिए राणा प्रताप ने यह दुर्लभ लगने वाला अभियान सम्पन्न किया था। इस अभियान में इनके साथ गुरु राघवेंद्र, चन्द्रसेन, शक्तिसिंह भी थे।

अकबर कूटनीति से मारवाड़ फूलकंवर के लिए विवाह सन्धि का प्रस्ताव भेजता है, मालदेव जी के बाद मारवाड़ के राणा रामसिंह जी उतने वीर नही थे। उन्होंने मुगलों के भय से इसे स्वीकार कर लिया। राणा प्रताप को जब ये पता चला तो वे मारवाड़ के कुंवर चन्द्रसेन को लेकर मारवाड़ पहुँचते है। परन्तु रामसिंह जी नही मानते। अंत में फूलकंवर के आत्महत्या करने के सन्देश के चलते, राणा प्रताप को उन्हें बचाना पड़ता है और उसके बाद उनका विवाह प्रताप से सम्पन्न होता है।

इससे झुंझला कर एक बार फिर अकबर मानसिंह के नेतृत्व में उदयपुर पर आक्रमण करने सेना भेजता है, जिसे कुंवर जगमाल व रानी धिरबाई एक षड्यंत्र करके अकबर को वापस भेजनेमें सफल होते है, राणा उदयसिंह का देहावसान हो जाता है, एक षड्यंत्र के कारण कुंवर जगमाल को सत्ता सौंप दी जाती है, महाराणा प्रताप व उनके परिवार को जगमाल देश निकाला दे देता है। जगमाल के हाथों में मेवाड़ की सत्ता मुगलों के अधीन जाते देख सभी सामन्त एकमत होकर राणा प्रताप को मनाने जाते है, रानी जेवन्ता बाई प्रताप को अपना धर्म व कर्तव्य याद दिलाती है। मेवाड़ी ध्वज, मेवाड़ी पुरखों के अपमान और मुगलों की अधीनता स्वीकारने के जगमाल के निर्णय से राणा प्रताप अत्यंत क्रुद्ध होते है। सभी सामन्तो व सेना नायकों व जनता की इच्छा से राणा प्रताप पुनः मेवाड़ का शासन संभालते है।

अकबर अपनी इस पराजय से रक बार फिर उबल उठता है, मां सिंह के नेतृत्व में एक बड़ी सेना भेजता है, महाराणा प्रताप कुछ 3000 सैनिक व 400 भील योद्धाओं के साथ अपने से कई गुना अधिक शत्रु सेना का सामना करने सज्ज हो जाते है। युद्ध के लिए प्रताप अपने निश्चित स्थान हल्दी घाटी को चुनते है ताकि अधिक से अधिक शत्रु का नुकसान हो, घनघोर युद्ध हल्दी घाटी में लड़ा जाता है, शक्ति सिंह प्रताप की वीरता व समर्पण देख इनके साथ हो जाता है।

अकबर जानता था महाराणा प्रताप से आमने सामने के युद्ध में उसकी मृत्यु निश्चित है, इसलिए महाराणा प्रताप से कई बार हारने के बाद फिर अकबर कभी सीधे महाराणा से लड़ने नही आया। कभी बैरम खान, कभी मानसिंह, कभी आसफ खान आदि सेनापतियों को भिजवाता रहा। धोखे, षड्यंत्र, अनीति पूर्ण युद्ध से अकबर ने अपना साम्राज्य अवश्य बढ़ाया। क्योंकि भारतीय राजा नीति से युद्ध करने वाले हुआ करते थे, और मुगल क्रूर व अनैतिक।

महाराणा ने जीवन पर्यंत संघर्ष किया, वन में रहना घांस की रोटी तक खाना स्वीकार किया। परन्तु पराधीनता की वैभवशीलता को कभी समीप नही आने दिया। अकबर ने मानसिंह, भगवान दास, टोडरमल आदि को कई बार भेजकर बिना किसी शर्त राणा प्रताप को अपने दरबार मे आने के आमंत्रण भेजे, अपने अधीन आने के भरसक प्रयास किए। परन्तु प्रताप ने कभी अपनी मातृभूमि के लिए संघर्ष व स्वाधीनता से समझौता नही किया। महाराणा प्रताप केवल राजस्थान ही नही अपितु समूचे भारत वर्ष में अपने मातृभूमि के प्रति असीम समर्पण व त्याग के लिए जाने जाते है। हर देशभक्त युवा को महाराणा प्रताप के जीवन चरित्र को पढ़ना व अध्ययन करना चाहिए। धर्म व नीति नियमों पर अडिग रहते हुए, मातृभूमि की रक्षा का संकल्प की जीवटता सीखने योग्य यदि कोई महापुरुष है तो वे महाराणा प्रताप ही है। उनके जैसा देशभक्त वीर सदियों में जन्म लेते है।

मंगलेश सोनी
मनावर (मध्यप्रदेश)

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