कैसे भूलू में बचपन अपना।
दिल दरिया और समुंदर जैसा।
याद जब भी आये वो पुरानी।
दिल खिल जाता है बस मेरा।
और अतीत में खो जाता हूँ।
कैसे भूलू में बचपन अपना।।
क्या कहूं उस, स्वर्ण काल को।
जहां सब अपने, बनकर रहते थे।
दुख मुझे हो तो, रोते वो सब थे।
मेरी पीड़ा को, वो समझते थे।
इसको ही स्वर्णयुग कह सकते ।।
मेरा रहना खाना और पीना।
माँ बाप को, कुछ था न पता।
ये सब तो, पड़ोसी कर देते थे।
इतनी आत्मीयता, उनमें होती थी।।
अब जवानी का, दौर कुछ अलग है ।
शहरों में कहां, आत्मीयता होती हैं।
सारे के सारे, लोग स्वार्थी है यहाँ के।
सिर्फ मतलब के, लिए ही मिलते है।।
पत्थरो के शहर, में रहते रहते ।
खुद पत्थर दिल, हम हो गए है।
किस किस को दे, दोष हम इसका।
एक ही जैसे सारे, हो गए है।।
अन्तर है गांव और शहर में।
अपने और पराए में ।
वहां सब अपने होते थे।
यहां कोई किसी का नहीं।।
यहां के सारे रिश्ते झूठे है।
अपना बनकर अपनों को ठगते है।
और इंसानियत को ताक पर रखते है।
और फिर भी अपनापन दिखाते है।।
जय जिनेंद्र देव
संजय जैन,मुम्बई