मिले हम अपनी कविता,
गीतों के माध्यम तुमसे।
परन्तु ये तो कुछ,
और ही हो गया।
पढ़ते पढ़ते मेरे गीतों के,
तुम प्रसन्नसक बन गये।
और दिल ही दिल में,
हमें चाहने लगे।
और अपने कमेंटो से,
हमें लोभाने लगे।।
दिल से कहूँ तो मुझे भी,
पता ही नहीं चला इसका।
और हम भी तेरे कमेंटों,
के दीवाने हो गए।
अब तो तेरा मेरा हाल,
कुछ इस तरह का हैं।
जो एकदूसरे को देखे बिना
हम दोनों रह नहीं सकते।।
कितना दिलसे तुमने हमें पढ़ा।
ये तेरे चेहरे से समझ आता है।
दिल की गैहराइयों से देखे तो।
तुम में मोहब्बत नजर आती है।
इसलिए एक श्रोता का
कवि भी आशिक बन गया है।।
जय जिनेन्द्र देव
संजय जैन (मुम्बई)