जी हां बिहार की धरती पर कुछ ऐसा ही नजारा देखने को मिला। जोकि राजनीतिक समीकरण में बहुत उथल-पुथल को दर्शाता है। सियासत के सधे हुए सियासी कदम ने बिहार की धरती पर वही कर दिखाया जिस बात का पूर्ण रूप से अनुमान लगाया जा रहा था। क्योंकि बिहार के चुनाव में जिस प्रकार के समीकरण बिछाए जा रहे थे वह स्पष्ट रूप से यही सिद्ध कर रहे थे कि इस बार का बिहार चुनाव अब तक के हुए बिहार चुनाव से पूर्ण रूप से भिन्न होना तय है। इस बात की शंका और आशंका पूर्ण रूप से हो चुकी थी। क्योंकि सियासी रूपी शतरंज की गोट जिस प्रकार से अपनी चाल चल रही थी उस चाल के आधार पर आने वाले परिणाम स्पष्ट रूप से संकेत दे रहे थे जिसकी मात्र पुष्टि ही बाकी थी। जोकि परिणामों को आने के बाद हो गई। बिहार चुनाव में शतरंज के हाथी घोड़े राजा सिपाही प्यादे सभी अपनी-अपनी चाल बड़ी ही रणनीतिक रूप से चल रहे थे जिनकी चालों को देखकर यह स्पष्ट हो रहा था कि आने वाले 10 नवंबर को जब नतीजे आएंगे तो स्थिति चौंकाने वाली होगी। क्योंकि गढ़े गए चक्रव्यूह के अनुसार जब परिणाम आए तो उससे पूरी रूप रेखा साफ एवं स्पष्ट हो गई।
लोजपा जिस रणनीति के द्वारा कार्य कर रही थी वह स्पष्ट रूप से यह दर्शा रही थी कि इस बार नीतीश कुमार को सीमित करने का भरसक प्रयास किया जा रहा है साथ ही दूसरी पार्टी को खुला मैदान दिया जा रहा है और जब परिणाम आए तो सारे अनुमानों के चेहरे से पर्दा हट गया। क्योंकि अबतक जो भी अनुमान थे वह वास्तविकता में परिवर्तित हो गए और सीधे-सीधे नीतीश कुमार के पार्टी को बहुत भारी सियासी नुकसान हुआ जिसका मुख्य कारण यह था कि नीतीश कुमार की पार्टी दो मोर्चों पर चुनाव लड़ रही थी नंबर एक अपने धुर विरोधी महागठबंधन से नंबर दो सबसे बड़ा संघर्ष था वह यह था कि लोजपा की रणनीति का सामना करना। जोकि चुनावी मैदान में नीतीश के लिए सबसे बड़ी चुनौती थी। क्योंकि लोजपा सीधे-सीधे नीतीश कुमार पर ही निशाना साध रही थी। यदि शब्दों को बदलकर कहा जाए तो शायद गलत नहीं होगा कि नीतीश कुमार की इस बार के बिहार विधान सभा चुनाव में सबसे बड़ी चुनौती लोजपा ही बनकर उभरी थी जोकि नीतीश कुमार की जेडीयू को पूर्ण रूप से हर मोर्चे पर घेरने का प्रयास कर रही थी। क्योंकि लोजपा ने जिस प्रकार से चुनाव में शब्दों का चयन किया वह जदयू के लिए बहुत ही घातक था। क्योंकि साधारण मतदाता इतनी बारीक सियासत की चाल को नहीं भांप पाता कि किस ओर डगर पकड़ी जाए। जिसका परिणाम यह होता है कि बेचारा साधारण मतदाता चुनावी चक्रव्यूह में उलझकर रह जाता है। और अपने मत सियासत के सियासी फेर में उलझा देता है। बिहार चुनाव में यही हुआ भी। बेचारा सीधा-साधा साधारण मतदाता इस बार के सियासी चक्रव्यूह उलझ गया। जिससे कि सीधे-सीधे नुकसान नीतीश कुमार की पार्टी जदयू को हुआ। क्योंकि लोजपा के द्वारा बनाया गया चक्रव्यूह मतदाताओं के लिए बहुत ही विचित्र था। इसका मुख्य कारण यह था कि लोजपा अध्यक्ष अपने आप को नरेंद्र मोदी का हनुमान बताते हुए जनता को बहुत कुछ समझाने का प्रयास करते थे। क्योंकि चिराग लगातार यही कहते थे कि आने वाले दस नवम्बर को नीतीश कुमार मुख्यमंत्री नहीं रहेंगे अब भाजपा का मुख्यमंत्री होगा जिसके साथ लोजपा बिहार में सरकार बनाएगी। जिसके कारण मतदाता पूरी तरह से भ्रमित हो गया और वोट का बंटवारा हो गया।
खास बात यह है कि सियासत की दुनिया में मतों का बिखराव पराजय का मुख्य कारण होता है। जब भी किसी भी सियासी पार्टी की पराजय होती है तो उसका मुख्य कारण होता है कि मतों का बिखराव हो जाना। क्योंकि सियासत के धरातल पर पूरा खेल मतों का ही होता है। इसलिए आज के समय में सियासी पार्टियों ने नया फार्मूला ढ़ूँढ़ निकाला है वह यह कि अपनी जीत के साथ दूसरे के लिए हार की भी रूप रेखा तैयार करना। अब सियासी पार्टियां जितना अपने लिए जीत का मानचित्र तैयार करने में मेहनत करती हैं उससे कहीं अधिक दूसरे का मार्ग रोकने का भी प्रयास करती हैं। ऐसा इसलिए की अपने लिए चुनाव को सरल बनाया जाए। वोट के बिखराव के लिए अंदर खाने तमाम प्रत्यासी उतार देना जिससे की जो मत हमें न मिले उसको अपने विरोधी खेमें में पहुँचने से रोकने के लिए तमाम प्रत्यासियों को उतार कर मतों को पूरी तरह से तितर बितर कर अपने लिए एक सीधा रास्ता तैयार करना।
लोजपा के चक्रव्यूह ने नीतीश कुमार की पार्टी को सीमित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। नीतीश को इस बात अंदाजा अब हो गया होगा कि यदि चिराग को मना लिया जाता तो शायद यह स्थिति नहीं होती। चिराग पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी ने जदयू को गहरी चोट पहुंचाई है। इस बात का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि लोजपा की वजह से ही जदयू के कई मंत्री भी चुनाव हार गए। जिसमें जय कुमार सिंह जदयू के कद्दावर नेता और बिहार सरकार के मंत्री जय कुमार सिंह रोहतास के दिनारा सीट से लगातार जीत रहे जय कुमार सिंह की हार की वजह भाजपा से लोजपा में गये राजेंद्र सिंह हैं। हालांकि राजेंद्र सिंह भी चुनाव नहीं जीत पाए वह भी चुनाव हार गए लेकिन वोट के बंटवारे ने जय कुमार को चुनाव हरा दिया। सीट बंटवारे के कारण यह सीट भाजपा ने जदयू को दिया तो राजेंद्र सिंह बागी हो गए और लोजपा से चुनाव लड़ गए। दूसरा नाम सुरेश कुमार शर्मा का है जोकि बिहार सरकार में नगर विकास थे मंत्री सुरेश शर्मा मुजफ्फरपुर से चुनाव हार गए। तीसरा नाम संतोष कुमार निराला का आता है। संतोष कुमार निराला भी चुनाव हार गए। लोजपा के प्रत्याशी निर्भय निराला चुनावी मैदान में थे जिससे कि मतों का बिखराव हो गया और मंत्री जी चुनाव हार गए। चौथा नंबर आता है शैलेश कुमार का शैलेश कुमार बिहार के ग्रामीण कार्य मंत्री लेकिन यह भी अपना चुनाव हार गए। यहां भी मतों का बिखराव हुआ और परिणाम विपरीत हो गए। इसके बाद नंबर आता है कृष्ण नंदन वर्मा का जोकि घोसी विधानसभा से सीट बदल कर जहानाबाद गए जोकि बिहार सरकार के शिक्षा मंत्री लेकिन वर्मा भी अपना चुनाव नहीं बचा पाए और चुनाव हार गए। रामसेवक सिंह जोकि हथुआ से जदयू विधायक व समाज कल्याण मंत्री रामसेवक सिंह भी अपने क्षेत्र से चुनाव हार गए। जिनके सामने लोजपा से रामदास प्रसाद ने चुनाव लड़ा जिससे मतों का बिखराव हुआ।
2020 के विधानसभा चुनाव में चिराग पासवान ने जिस तरह फ्रंटफुट पर आकर नीतीश के खिलाफ लगातार आक्रामक तेवर दिखाते हुए एनडीए से बाहर जाकर भाजपा के बागियों को अपना उम्मीदवार बनाकर नीतीश के खिलाफ खड़ा किया तो उससे उनकी मंशा साफ हो गई। क्योंकि 143 उम्मीदवारों में से एक सीट पर मिली जीत के बाद भी गदगद दिख रहे चिराग पासवान ने कहा कि पार्टी का प्रदर्शन काफी अच्छा रहा है और पार्टी ने अपना जनाधार खड़ा किया है। चिराग पासवान ने यह भी कहा कि उनकी पार्टी को करीब 25 लाख वोट मिले हैं यानी उन्होंने यह बताने की कोशिश की है कि उन्हें लगभग 9% वोट हासिल हुए हैं। चिराग पासवान यह दावा कर रहे हैं कि बिहार की जनता ने उनकी नीतियों को पसंद किया है इसलिए उनका जनाधार भी बढ़ा है। बता दें कि इस बार के चुनाव में भाजपा के कई बागी लोजपा के टिकट पर मैदान में थे। भाजपा के कई दिग्गज नेताओं ने टिकट नही मिलने पर लोजपा के चिन्ह पर चुनाव लड़ा लोकिन वह लोजपा का चिराग जला पाने में कामयाब नहीं हो सके। लेकिन जदयू को नुकसान जरूर पहुंचाया।
बिहार के ताजा राजनीतिक समीकरण ने इस बार के चुनाव में बहुत कुछ कर दिखाया क्योंकि राजनीति की दुनिया में कुछ भी निर्धारित नहीं होता क्योंकि राजनीति की संकरी एवं चिकनी पकडंडियों पर तीव्र गति से दौड़ लगाना आसान नहीं होता। तनिक भी चूक होने के बाद पूरी तरह से संभल पाना संभव ही नहीं है। लेकिन एक बात तो तय है कि नीतीश ने इस बार के चुनाव से बहुत कुछ सीख लिया होगा। अब देखना यह है कि नीतीश कुमार अपनी इस घेराबंदी से किस प्रकार से पार पाने में सफल होते हैं। क्योंकि इस प्रकार की घेराबंदी नीतीश के राजनीतिक भविष्य के लिए अच्छे संकेत नहीं हैं। अब बिहार की राजनीति मे नीतीश अपने जनाधार को फिर से बढ़ाने के लिए क्या कदम उठाते हैं। साथ ही मतदाओं को आगामी चुनाव में किस प्रकार से अपने पाले में कर पाने में सफल होते हैं यह देखना होगा। जोकि समय के साथ पटल पर खुद ही चलकर सामने आ जाएगा।
वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनीति विशेषज्ञ।
(सज्जाद हैदर)