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उत्थान देख गांव की आँखें ये भर गई।
हालात देख गांव की आँखें ये भर गई।
नाली, खड़ंजे छोड़ो सब वो टूटे फूटे हैं
दालान देख मुखिया की आँखें ये भर गई।
महिला को चुना मुखिया था इस भोली जनता ने
देखा पति -परधान तो आँखें ये भर गई।
भीतर वो अपने बंगले में रक्खा है भला क्या
मुखिया की लॉन देखकर आँखें ये भर गई।
देखा है कागजों पे सबको मिल गया आवास
सुखिया की देख झोपड़ी आँखें ये भर गई।
खाना था मिठाई लेकिन लैट्रिन में मजा था
दीवार गिरी देखकर आँखें ये भर गई।
परधानी से पहले जहां रहती थी साइकिल
अब कार खड़ी देखकर आँखें ये भर गई।
सीखें वो ऐसी नीति लड़ाने लगे है अब
अब गांव बंटता देखकर आँखें ये भर गई।
खाते कभी तमाकू तो पी लेते थे बीड़ी
खुलती वो देख बोतलें आँखें ये भर गई।
है गगनचुम्बी बंगला जो परधान जी का है
छप्पर वो देख सुखिया की आँखें ये भर गई।
विधवा, वृद्धा पेन्शन के नाम पर लिए पैसे
खाते वो खाली देखकर आँखें ये भर गई।
कल तक जो थे छूते चरण और करते नमस्ते
ऐंठन अब उनकी देखकर आँखें ये भर गई।
इतिहास दुहराता है खुद को याद रखना तुम
‘एहसास’ जो किया तो फिर आँखें ये भर गई।
#अजय एहसास
परिचय : देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश के सुलेमपुर परसावां (जिला आम्बेडकर नगर) में अजय एहसास रहते हैं। आपका कार्यस्थल आम्बेडकर नगर ही है। निजी विद्यालय में शिक्षण कार्य के साथ हिन्दी भाषा के विकास एवं हिन्दी साहित्य के प्रति आप समर्पित हैं।
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