आकण्ठ तक डूबा हूँ, प्रेम लौ से मैं जला हूँ,
श्वास के आवर्तनों की, धीरता से मैं छला हूँ ।
अश्रुओं की सिंचना ने, धो दिये कपोल मेरे,
आह! तुमसे न सही, पर वेदना से मैं पला हूँ ।।
आभास-जग! आभा- सजग है, रात के पहरे उजारे,
नि:शब्द हैं, चुप चाप से भी, अंक के अभिकल्प सारे।
भावनाओं का उफनता ज्वार भी
थम सा गया कुछ,
चेतना की झंकृति से, बज रहे हैं जो सितारे।।
उन सितारों के स्वरों के राग से जीने चला हूँ!!
*आह! तुमसे न सही……!*
नेह की मधुमयी रचना, देह की उन्मन् कलायें,
बेधतीं! मन को, प्रफुल्लित मदन-शर वाली शिरायें।
आकर्षणों की व्यंजना, अभिधा सहज आँखें बतातीं,
पुण्यगर्भा! क्या दमकती? देह-ज्योति से दिशायें।।
उन दिशाओं में दमकती, शब्द-शक्ति से छला हूँ ।।
*आह! तुमसे न सही….*
#गणतंत्र ओजस्वी