शकुनि मन

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niraj tyagi
ऊँचाई पर उड़ता शकुनि मन भूल गया अपनी बुराई को।
कैसे – कैसे वो नित प्रपंच रचता है दिलाने दूसरे को बुराई।।
दूसरे की जिव्हा पर नित अपने शब्दों को बोता है।
अपनेपन की आड़ में नित नए षड्यंत्र वो पिरोता है।।
कितनी भी कर ले कौव्वा कोशिश,काय काय ना छोड़ेगा।
चाहे कुछ कम बोले पर अपनी आंखों से मक्कारी घोलेगा।।
मक्कारी  जिसने  मन  में ही शकुनि  सी  पायी  है।
करता नही किसी की परवाह,करता सिर्फ तबाही है।।
करने  को  दमन  सच्चाई  का  कुछ भी फिर कर जाता है।
करता नमन कृष्ण को मतलब से,मन उनका बरगलाता है।।
षड्यंत्र जिसके मन मे शकुनि सा,वो ना कभी सुधर पाएगा।
अपने  नए – नए  तरीकों  से  बस  दूसरे को ही फ़सायेगा।।
आँख मूंद,अंध धृतराष्ट्र सा जो भी शकुनि को अपनाएगा।
खुद ही वंश विनाशक बनकर अपनो को निबटाएगा।।
कलयुग में किसी को समझाने अब कृष्ण कभी ना आएंगे।
षडयंत्रो के एक नही,कई शकुनि हर घर मे पाएं जाएंगे।।
अपने आप को खुद ही शकुनियों से अब बचाना होगा।
आँख मूंद कर चलते रहने से खुद को अब बचाना होगा।।
#नीरज त्यागी 
ग़ाज़ियाबाद (उ. प्र)

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