ज़िम्मेदारी नहीं अभी,
अपनी बारी नहीं अभी।
जैसे-तैसे जीत गए,
वैसी पारी नहीं अभी।
वक़्त नींद का हुआ भले,
पलकें भारी नहीं अभी।
अगल-बगल ही प्यादे हैं,
मात हमारी नहीं अभी।
थोड़ा वक़्त कठिन है बस,
पर लाचारी नहीं अभी।
#प्रदीप कान्त
परिचय : इंदौर में केट कालोनी निवासी प्रदीप कान्त की ग़ज़ल और नवगीत लेखन में विशेष रूचि है। 2012 में ग़ज़ल संग्रह ‘क़िस्सागोई करती आँखें’ प्रकाशित हुआ है। जनसत्ता साहित्य वार्षिकी (2010),समावर्तन,बया, पाखी, कथादेश और इन्द्रप्रस्थ भारती आदि साहित्यिक पत्रिकाओं व दैनिक समाचार पत्रों में गज़लें व नवगीत प्रकाशितहोते हैं। आपकी रचनाएँ कई वेबसाइट्स पर भी संकलित हैं।