# दिवाकर पाण्डेय
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क्या प्रकृति के ही उद्गार को मोड़ लें
तुम कहो तो विरक्ति से मन जोड़ लें
निर्वसन होके तुम यूँ ही फिरती रहो
और हमसे कहो के नयन फोड़ लें
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आचरण भीग कर पूरा नम हो गया
जिसको सुतली था समझा वो बम हो गया
रूप के तेरे लावण्य का है असर
दिल ये धड़का तो कैसे सितम हो गया
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एक दिन जिंदगी रेल हो जाएगी
पूरी बाज़ार ही सेल हो जाएगी
यूँ ही सज धज के निकला करोगी अगर
एक न एक दिन मुझे जेल हो जाएगी
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मुझको कहते हो संयम में तुम ही रहो
आम को देखकर भी निबोरी कहो
इसमें पहना है क्या और निकाला है क्या
क्या ढका है खुला क्या है कुछ तो कहो
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