देखना अब सम्भव नहीं था
और जो सम्भव था
वह था दिखावा
कई सदियां बीत जाने पर
जो दृष्टि उभर कर आयी थी
वह दिखावे को देखने भर की
पुष्टि कर पायी थी
तुम जो दिखाते
वह तुम नहीं थे
हम जो दिखाते
वह हम नहीं थे
तुम जो देखते
वह हम नहीं थे
हम जो देखते
वह तुम नहीं थे
देखने दिखाने की होड़ में
कई सरहदें बनी थीं
और कई टूट गयी थीं
और जो देखना दिखाना बाकी था
वह शौर्य की होड़ में नाकाफी था
एक आदमी जो देख रहा था
एक आदमी जो दिखा रहा था
उनमें बस एक समानता थी
कि दोनों एक ही जगह खड़े थे
जहाँ से सफर पूरा अभी बाकी था
दृष्टि अपवर्तन था
और सृष्टि समापवर्तन
और दोनों किसी अस्तित्व की व्याप्ति थे
या किसी अनजाने उलझन की समाप्ति थे
राह में सभी देखते
कोई वर्तमान
किसी रीते हुए
कालखंड का साक्षी था
अतीत के परखचों पर
अपवर्जन अब सम्भव नहीं था .
#अशोक कुमार
हजारीबाग (झारखंड)