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तुम क्यों आते हो सपने में?
क्यों नींद से मुझे जगाते हो?
मुझमें विश्वास जगाने को,
क्यों उलझन में उलझाते हो?
ये मरूस्थल सा तपता जीवन,
निर्जन वन सा मेरा तन-मन,
ये जब प्यासा मारा फिरता है,
चलने में सौ बार फिसलता है,
थक जाता जल को ढूंढ-ढूंढ,
तब मूर्छित हो गिर जाता है।
तुम क्यों अमृत बरसाते हो?
तुम क्यों जीना सिखलाते हो?
इस निर्जीव पड़े जीवन में तुम,
क्यों फिर से विश्वास जगाते हो?
तुम क्यों आते हो सपने में?
क्यों नींद से मुझे जगाते हो?
क्यों नींद से मुझे जगाते हो?
“कुमारी प्रियंका मिश्रा”
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