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भाषणों का जहर घुला था,
मनभावन एक शहर जला था।
हो रही थी अनर्गल बातें,
जय जयकारों का शोर मचा था।
फिर शब्दों के बाण छूटे,
और द्वैष की एक लहर उठी।
जैसे शांत खड़ी उस भीड़ की,
संयम की मर्यादा टूटी।
कल तक जो भाई थे,
उन पे भाई ने आज प्रहार किया।
प्रति उत्तर में भाई ने,
अपनों का संहार किया।
खूब चले लाठी-डंडे,
मानवता का अंतिम-संस्कार हुआ।
जैसे अपनेपन का राग यहां,
एक क्षण में था बेकार हुआ।
नेताओं की चक्की में,
जाने मजलूम कितने पिस गए।
इस जात-पात के दंगे में,
बस आमजन हैं घिस रहे ?
इस तर्कविहीन लड़ाई में,
कुछ ऐसे लोग बेजान हुए।
जो न थे इस जात-न उस जात के,
थे पेट की ज्वाला में हलाकान हुए।
अब मातम उन घरों का देखने,
नहीं कोई है जा रहा ?
आज भी मासूम वहां बिलखते हैं,
उनकी खबर न कोई लगा रहा॥
# मुकेश सिंह
परिचय: अपनी पसंद को लेखनी बनाने वाले मुकेश सिंह असम के सिलापथार में बसे हुए हैंl आपका जन्म १९८८ में हुआ हैl
शिक्षा स्नातक(राजनीति विज्ञान) है और अब तक विभिन्न राष्ट्रीय-प्रादेशिक पत्र-पत्रिकाओं में अस्सी से अधिक कविताएं व अनेक लेख प्रकाशित हुए हैंl तीन ई-बुक्स भी प्रकाशित हुई हैं। आप अलग-अलग मुद्दों पर कलम चलाते रहते हैंl
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