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मैंने…कब चाही
अपने प्रेम की
विलक्षण परिभाषा…।
कब की…तुमसे
मिलन की आशा..।
मैंने कब चाहा तुम्हारे,
मखमली आलिंगन का अधिकार ..।
मैंने..कब चाहा तुमसे,
चिर मिलन,समर्पण,या प्यार …।
मेरे प्रेम को,
नहीं चाहिए,
शरीर का आकार…।
यौवन का ..,ज्वार…।
देह का ….चंदन …।
शिराओं का…स्पंदन..।
मैं तो प्यासा हूँ,
उन्मुक्त प्रेम का….।
निराकार समर्पण का …।
स्वार्थ मुक्त अधिकार का …।
नेह का…मनुहार का …।
बहुत ढूंढा,बहुत खोजा…।
यौवन के गलियारों में …,
कंचन के बाजारों में …,
कामायनी से लेकर मधुशाला तक …।
जयशंकर से लेकर निराला तक …,
मीर से गालिब की खुमारी तक…।
काश्मीर से कन्याकुमारी तक ….।
निश्चछल प्रेम की चाह में भटका हूँ,
पर..जहाँ से चला था..वहीं अटका हूँ॥
#अनुपम कुमार सिंह ‘अनुपम आलोक’
परिचय : साहित्य सृजन व पत्रकारिता में बेहद रुचि रखने वाले अनुपम कुमार सिंह यानि ‘अनुपम आलोक’ इस धरती पर १९६१ में आए हैं। जनपद उन्नाव (उ.प्र.)के मो0 चौधराना निवासी श्री सिंह ने रेफ्रीजेशन टेक्नालाजी में डिप्लोमा की शिक्षा ली है।
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