विरह

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पौ फटते ही जमना तट पर
हर रोज राधिका आती थी,
घट अंक धरे तट पर बैठी
प्रिय राह आँख बिछाती थी।
कुछ बीते पल घण्टे बीते
सूरज सिर के ऊपर आया,
दोपहर गई गिर सांझ हुई
राधा का श्याम नहीं आया।
दोनों हाथों से घट थामे
अपलक दूर तक तकती थी,
भीतर ही भीतर चटखी-सी
अपने पर ताना कसती थी।
धीरे-धीरे सूरज डूबा
आकाश लालिमा युक्त हुआ,
व्याकुल तरंग वत राधा मन
अज्ञात कालिमायुक्त हुआ।
आँखें फैली मुँह खुला हुआ
ठोढ़ी पर हाथ काँपता था,
था वाम हस्त हृदय थामे
हर साँस उसाँस हाँफता था।
धीरे-धीरे दृग बन्द हुए
सिर नट घुटनों तक आ ठहरा,
राधा मन कहीं कुछ देख रहा
किस्मत पर होनी का पहरा।
रीती-रीती-सी आँखों में
झर-झर-झर आंसू झरते थे,
राधा की आहट चेतना से
हर भाव ठिठौली करते थे।

                                                                #सुशीला जोशी

परिचय: नगरीय पब्लिक स्कूल में प्रशासनिक नौकरी करने वाली सुशीला जोशी का जन्म १९४१ में हुआ है। हिन्दी-अंग्रेजी में एमए के साथ ही आपने बीएड भी किया है। आप संगीत प्रभाकर (गायन, तबला, सहित सितार व कथक( प्रयाग संगीत समिति-इलाहाबाद) में भी निपुण हैं। लेखन में आप सभी विधाओं में बचपन से आज तक सक्रिय हैं। पांच पुस्तकों का प्रकाशन सहित अप्रकाशित साहित्य में १५ पांडुलिपियां तैयार हैं। अन्य पुरस्कारों के साथ आपको उत्तर प्रदेश हिन्दी साहित्य संस्थान द्वारा ‘अज्ञेय’ पुरस्कार दिया गया है। आकाशवाणी (दिल्ली)से ध्वन्यात्मक नाटकों में ध्वनि प्रसारण और १९६९ तथा २०१० में नाटक में अभिनय,सितार व कथक की मंच प्रस्तुति दी है। अंग्रेजी स्कूलों में शिक्षण और प्राचार्या भी रही हैं। आप मुज़फ्फरनगर में निवासी हैं|

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