लाखों घर बर्बाद हो गए इस दहेज की बोली में,
अर्थी चढ़ी हज़ारों कन्या बैठ न पाई डोली में।
कितनों ने अपनी कन्या के पीले हाथ कराने में,
कहाँ-कहाँ है माथा टेका,शर्म आती बतलाने में।
क्यों टूट रहे परिवार रोज ही,क्यों फूट रही हैं तकदीरें,
लोभी फिर भी खोज रहे,नित शोषण की तदबीरें।
अब तो लालच छोड़,मिल जाओ मानव टोली में,
अर्थी चढ़ी हज़ारों कन्या….॥
ऐ नवजवान युवक क्यों तू बनता आज भिखारी है,
खून कलेजे का पी जाती हाय ये कैसी बीमारी है।
जिस पर बीती,वही जानता बात नहीं ये कहने की,
जीवनभर का क़र्ज़ लद गया,सीमा टूटी सहने की।
गहने,खेत,मकान बिक गए,इस दहेज़ की बोली में,
अर्थी चढ़ी हज़ारों कन्या….॥
पति-पत्नी के बीच खाइयां खोदी इस शैतान ने,
सास-बहू को शत्रु बनाया ,देखो इस हैवान ने।
अब भी बे-मतलब की देखो रार मचाई जाती है,
क्यों दहेज़ के लिए आज भी,बहू जलाई जाती है।
दानवता क्यों घुस आई राम-राज की टोली में,
अर्थी चढ़ी हज़ारों कन्या….॥
अब तक रुके न ये इंसान मानवता की भाषा में,
लड़के वाले दरें बढ़ाते, बस धन की अभिलाषा में।
क्या यही हमारा मनुज रुप है,और अहिंसा प्यारी है,
लड़की वालों की गर्दन पर हरदम रखे एक कटारी है।
आग लगे ऐसे दहेज़ की दानवता की टोली में,
अर्थी चढ़ी हज़ारों कन्या….॥
अब भी चेतो लड़के वालों,कन्याओं की शादी में,
नहीं बंटाओ हाथ,इस तरह तुम ऐसी बर्बादी में।
तुमको भी ऐसा दुख होगा,जब ऐसा दिन आएगा,
अथवा ये बेबस का पैसा तुमको रास न आएगा।
नहीं मिलाओ जहर दहेज का,आज माँगकर रोली में,
अर्थी चढ़ी हज़ारों कन्या,बैठ न पाई डोली में॥
परिचय: डॉ.ज्योति मिश्रा वर्तमान में बिलासपुर(छत्तीसगढ़) में कर्बला रोड क्षेत्र में रहती हैं। आपकी उम्र करीब ५८ वर्ष और शिक्षा स्नातकोत्तर है। पूर्व प्राचार्या होकर लेखन से सतत जुड़ी हुई हैं। प्रकाशन विवरण में आपके नाम साझा काव्य संग्रह ‘महकते लफ्ज़’ और ‘कविता अनवरत’ है तो,एकल संग्रह ‘मनमीत’ एवं ‘दर्द के फ़लक’ से है। कई प्रतिष्ठित समाचार पत्रों में कविताएं छप चुकी हैं।आपको युग सुरभि,हिन्दी रत्न सहित विक्रम-शिला हिन्दी विद्यापीठ (उज्जैन,२०१६),तथागत सृजन सम्मान,विद्या-वाचस्पति,शब्द सुगंध,श्रेष्ठ कवियित्री (मध्यप्रदेश),हिन्दीसेवी सम्मान भी मिल चुका है। आप मंच पर काव्य पाठ भी करती रहती हैं। आपके लेखन का उद्देश्य अपनी भाषा से प्रेम और राष्ट्र का गौरव बनाना है।