आज देखी है मैंने जल की तृष्णा,
बड़ी भयंकर,वीभत्स,अनोखी-सी।
अजस्र नरों का रक्त पीकर
इठलाती चल दी भूखी-सी।
अपना बहाव बदलकर आई है
जन-मानस के जंगल में,
बस जीत रही है आज अकेले
प्रकृति-मानव के दंगल में।
पर बुरा भी क्यों मानूं मैं उसको,जब उसे हमने ही हड़काया है,
अपने लोभ की तृष्णा में,उसकी तृष्णा को भरकाया है।
अपना घर सजाने को
उसका आशियाना मिटाया है,
नदी को तालाब बनाकर
पेड़ों को काट गिराया है।
जल से हमने किया था छल
अब हमको है तड़पा रही,
तृष्णा उसकी जगी है जो
बर्बादी का मतलब हमको बता रही।
परिचय: अपनी पसंद को लेखनी बनाने वाले मुकेश सिंह असम के सिलापथार में बसे हुए हैंl आपका जन्म १९८८ में हुआ हैlशिक्षा स्नातक(राजनीति विज्ञान) है और अब तक विभिन्न राष्ट्रीय-प्रादेशिक पत्र-पत्रिकाओं में अस्सी से अधिक कविताएं व अनेक लेख प्रकाशित हुए हैंl तीन ई-बुक्स भी प्रकाशित हुई हैं। आप अलग-अलग मुद्दों पर कलम चलाते रहते हैंl
यथार्थ चित्रण!!
मानव के चेतावनी देती रचना!!