शहर

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sanjeev
मेरा शहर
न अब मेरा है,
गली न मेरी
रही गली है।
अपनेपन की माटी गायब,
चमकदार टाइल्स सजी है।
श्वान-काक-गौ तकें,न रोटी
मृत गौरैया प्यास लजी है।
सेंव-जलेबी-दोने कहीं न,
कुल्हड़-चुस्की-चाय नदारद।
खुद को अफसर कहता नायब,
छुटभैया तन करे अदावत।
अपनेपन को
दे तिलांजलि,
राजनीति विष-
बेल पली है।
अब रौताइन रही न काकी,
घूँघट-लज्जा रही न बाकी।
उघड़ी ज्यादा,ढकी देह कम
गली-गली मधुशाला-साकी।
डिग्री ऊँची न्यून ज्ञान,तम
खर्च रुपया आय चवन्नी।
जन की चिंता नहीं राज को
रुपया रो हो गया अधन्नी।
‘लिव इन’ में
घायल हो नाते
तोड़ रहे दम
चला-चली है।
चाट-चाट,खाना ख़राब है,
देर रात सो,उठें दुपहरी।
भाई,भाई की पीठ में छुरा
भोंक जा रहा रोज कचहरी।
गूँगे भजन,अजानें बहरी
तीन तलाक पड़ रहे भारी।
नाते नित्य हलाल हो रहे
नियति नीति-नियतों से हारी।
लोभतंत्र ने
लोकतंत्र की
छाती पर चढ़
दाल दली है।
#संजीव वर्मा सलिल

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