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जालों को अँधेरे खा रहे,
अंधेरों से फिर मात खा रहे।
उठाए थे हाथ दुआओं में जिनकी ख़ातिर, ,
वही आज नासूर नज़र बन तड़पा रहे।
जिंदा थे कल तलक जैसे तैसे,
आज होश-ओ-हवास खोते जा रहे।
मैं दर्द बयां करूँ तो करूँ किससे,
जब अपने ही जख़्म देते जा रहे।
हर दवा भी बेअसर हुई अब,
प्याले दवा ज़हर भरते जा रहे।
बैचेन है साँसें नमुक्मिल आज,
तलाश-ऐ-ज़िंदगी में हम कहाँ जा रहे।
पिलाकर नस्लों को घूंटी पश्चिम की,
हम क्यों आज पूरब को भुलाते जा रहे।
उजालों को अँधेरे खा रहे,
अँधेरों से फिर मात खा रहे ।
# विवेक दुबे
परिचय : दवा व्यवसाय के साथ ही विवेक दुबे अच्छा लेखन भी करने में सक्रिय हैं। स्नातकोत्तर और आयुर्वेद रत्न होकर आप रायसेन(मध्यप्रदेश) में रहते हैं। आपको लेखनी की बदौलत २०१२ में ‘युवा सृजन धर्मिता अलंकरण’ प्राप्त हुआ है। निरन्तर रचनाओं का प्रकाशन जारी है। लेखन आपकी विरासत है,क्योंकि पिता बद्री प्रसाद दुबे कवि हैं। उनसे प्रेरणा पाकर कलम थामी जो काम के साथ शौक के रुप में चल रही है। आप ब्लॉग पर भी सक्रिय हैं।
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