‘शाख से पत्ता कोई जुदा नहीं होता।
रोता है अब बचपन,बच्चा नहीं रोता।।’
किसी भी देश की संस्कृति,भाषा, साहित्य के सर्वांगीण विकास में शिक्षा का बहुमूल्य योगदान है। शिक्षा ही वो माध्यम है,जिसके अनुरूप अपने जीवन मूल्यों,संस्कृति व किसी देश की बहुमुखी प्रतिभा का आंकलन किया जा सकता है। भारत में साक्षरता का आंकड़ा सूर्योदय की प्रथम किरण मात्र है,आजादी के वर्षों बाद भी शिक्षा की गति मद्धम ही रही,परन्तु नब्बे के दशक के बाद शिक्षा ने जिस तरह से आधुनिकता का चोला ओढ़े अपने पाँव पसारे,उसका सीधा प्रभाव हमारे बच्चों पर पड़ा, और रही सही कसर अंग्रेजी ने पूरी कर दी है।
आधुनिक शिक्षा जिस तरह हमारी संस्कृति पर हावी होती जा रही है,वरन हमारे बच्चों पर भी सामान्य से भी अधिक बोझ बनती जा रही है। अपितु इससे बच्चों का शारीरिक व मानसिक संतुलन भी प्रभावित हो रहा है। बच्चे पहले जहां अपनी पढ़ाई के साथ-साथ माता-पिता के दैनिक कार्यों में भी सहायता करते थे,और शाम होते ही चौगान में अपने खेलकूद के क्रिया कलापों में भी अपना जी भर के मनोरंजन करते थे,जिससे मन और दिमाग में ऊर्जाप्रवाह बनी रहती थी, वहीं आज किताबों के बोझ से बस्ते भारी हो रहे है।
फलस्वरुप बच्चों में अपरिवर्तनीय विकृति विकसित कर रहे हैं। विशेषज्ञों का मानना है की सभी बच्चों में से आधा १४ साल की उम्र के बच्चे पीठ दर्द औऱ आँखों की परेशानी से परेशान हैं। चिकित्सकों के अनुसार इसे ‘स्कोलियोसिस’ के रूप में जाना जाता है। विकिरण कर्वेटर सहित विद्यार्थियों में रीढ़ की हड्डी में असामान्यता के मामलों में भी वृद्धि हुई है।
अतिभारित स्कूल बैग,जो दस साल पहले किए गए लोगों के आकार को दोगुना करने के लिए किए गए सर्व पर है,अब औऱ बड़ा हो गया है।आठ-नौ साल के किशोर बच्चे तो ठीक,यहां तक कि वयस्क भी आत्महत्या कर रहें हैं।
आज बच्चे अपने शरीर के वजन का एक चौथाई तक ले जा रहे हैं,जो वयस्क के लिए भी परेशानी वाला काम है। वर्तमान में इस समस्या के समाधान की आवश्यकता है।
‘खो गई रे हँसी,
खो गया रे बचपन..
बस्तों के बोझ तले
दबता बचपन..।’
हमें इस मुद्दे पर एक त्वरित अवलोकन करने की आवश्यकता है। ‘माता-पिता को बच्चों के बैकपैक्स पर नज़र रखने की जरूरत है,ताकि वे बड़े होकर अपने स्वास्थ्य के लिए समस्याएं पैदा न करें।
हम अभिभावक,स्कूल और प्रशासन को भी ये सुनिश्चित करना होगा,कि हमारे बच्चों का वर्तमान ही नहीं,भविष्य भी सुंदर,सुव्यवस्थित बनाने की और कड़े कदम उठाने की जरूरत है। आज की विचारशील सोच ही हमारे नौनिहालों की ज़िन्दगी को सुखमय खुशियों से भर सकती है।
कान्ता #चन्द्र सिवाल ‘चन्द्रेश’