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देश के सर्वोच्च संवैधानिक पद यानी राष्ट्रपति के बारे में मुझेे पहली जानकारी स्कूली जीवन में मिली,जब किसी पूर्व राष्ट्रपति के निधन के चलते मेरे स्कूल में छुट्टी हो गई थी। तब में प्राथमिक कक्षा का छात्र था। मन ही मन तमाम सवालों से जूझता हुआ मैं घर लौट आया था। मेरा अंतर्मन किसी के देहावसान पर सार्वजनिक छुट्टी के मायने तलाशने लगा। इसके बाद बचपन में ही वायु सेना केन्द्र में एक समारोह में जाने का मौका मिला,जहां मुख्य अतिथि के रूप में तत्कालीन राष्ट्रपति मंचासीन थे। महाविद्यालय तक पहुंचते-पहुंचते राजनेताओं के सार्वजनिक जीवन में मेरी दिलचस्पी लगातार बढ़ती गई। प्रधानमंत्री-राष्ट्रपति,राज्यपाल-मुख्यमंत्री,विधानसभा अध्यक्ष या मुख्य सचिव जैसे पदों में टकरावों की घटना का विश्लेषण करते हुए मैं सोच में पड़ जाता कि,आखिर इनमें ज्यादा ताकतवर कौन है…क्योंकि तात्कालीन पत्र-पत्रिकाओं में विभिन्न राजनेताओं के बीच अहं के टकराव से संबंधित खबरें सुर्खियां बना करती थी।तब के पत्र-पत्रिकाओं में इससे जुड़़ी खबरें चटखारों के साथ परोसी और पढ़ी जाती थी। मैं उलझन में पड़ जाता,क्योंकि पद बड़ा किसी ओर का बताया जा रहा है,जबकि जलवा किसी ओर का है। यह आखिर कैसा विरोधाभास है। युवावस्था तक देश में कथित बुद्धू बक्से का प्रभाव बढ़ने लगा। इस वजह से ऐसे चुनावों को और ज्यादा नजदीक से जानने-समझने का मौका मिलता रहा। राष्ट्रपति निर्वाचन यानी एक ऐसा चुनाव,जिसमें सिर्फ माननीय ही वोट देते हैं। हालांकि,इस चुनाव के दौरान सत्तारूढ़ दल से ज्यादा विपक्षी दलों की उछलकूद बड़ी रोचक लगती है। इस दौरान आम सहमति जैसे शब्दों का प्रयोग एकाएक काफी बढ़ जाता है। उम्मीदवार के तौर पर कई नाम चर्चा में है। वहीं कुछ बड़े राजनेता बार-बार बयान देकर खुद के राष्ट्रपति पद की दौड़ में शामिल होने की संभावनाओं को खारिज भी करते रहते हैं। यह क्या जिस चुनाव को लेकर विपक्षी संगठन दिन-रात एक किए हुए हैं,वहीं सत्तापक्ष इसे लेकर अमूमन उदासीन ही नजर आता है। विपक्षी दलों की सक्रियता की श्रंखला में चैनलों पर एक-से-बढ़कर-एक महंगी कारों में सवार राजनेता हाथ हिलाकर अभिवादन करते नजर आते हैं। थोड़ी देर में नजर आता है कि,साधारणतः ऐसे हर मौकों पर एकाएक सक्रिय हो जाने वाले तमाम राजनेता किसी वातानुकूलित कक्ष में बैठकें कर रहे हैं। सोफों पर फूलों का गुलदस्ता करीने से सजा है। सामने मेज पर चाय-नाश्ते का तगड़ा प्रबंध नजर आता है। चुनाव का समय नजदीक आया और अमूमन हर बार विपक्षी संगठनों की सक्रियता के विपरीत शासक दल ने एक गुमनाम से शख्स का नाम इस पद के लिए उम्मीदवार के तौर पर आगे कर दिया। लगे हाथ यह भी खुलासा कर दिया जाता है कि,उम्मीदवार फलां जाति के हैं। उम्मीदवार के गुणों से ज्यादा उनकी जाति की चर्चा मन में कोफ्त पैदा करती है,लेकिन शायद देश की राजनीति की यह नियति बन चुकी है। फिर शुरू होता है बहस और तर्क- वितर्क का सिलसिला। विश्लेषण से पता चलता है कि,चूंकि उम्मीदवार इस जाति से हैं तो सत्तारूढ़ दल को इसका लाभ फलां-फलां प्रदेशों के चुनाव में मिलना तय है। तभी विरोधी संगठनों की ओर से भी पूरी ठसक के साथ अपने उम्मीदवार की घोषणा संबंधित की जाति के खुलासे के साथ कर दी जाती है। इस दौरान एक और महाआश्चर्य से पाला पड़ता है। वह उम्मीदवार को समर्थन के सवाल पर अलग-अलग दलों का एकदम विपरीत रुख अख्तियार कर लेना,समझ में नहीं आता कि,कल तक जो राजनीतिक दल एक मुंह से भोजन करते थे,वे देश के सर्वोच्च पद के लिए होने वाले चुनाव के चलते एक दूसरे के इतना खिलाफ कैसे हो सकते हैं। भला कौन सोच सकता था कि,यूपीए उम्मीदवार की जीत सुनिश्चित करने के लिए शिवसेना उस भाजपा के खिलाफ जा सकती है,जिसके साथ उसने लंबा राजनीतिक सफर तय किया था,या नीतीश कुमार लालू को छोड़ उस भाजपा का दामन थाम सकते हैं,जिसके नाम से ही उन्हें कभी चिढ़ होती थी। विस्मय का यह सिलसिला यही नहीं रुकता। चुनाव निपटने के बाद तमाम दल फिर अपने-अपने पुराने रुख पर लौट आते हैं। वाकई अपने देश में कहीं-न-कहीं कोई-न-कोई चुनाव तो होता ही रहता है,लेकिन देश के सर्वोच्च पद के लिए होने वाले चुनाव की बात ही कुछ और है।
#तारकेश कुमार ओझा
लेखक पश्चिम बंगाल के खड़गपुर में रहते हैं और वरिष्ठ पत्रकार हैं
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