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जीवन तो है यह अनमोल,
है ऋषियों-शास्त्रों के ये बोल।
धरा धाम पर नहीं अकारण,
आना हुआ लो मन में तौल॥
दीप निशा में तमस मिटाता,
ऊर्जा रोशनी है सूरज लाता।
है पवन किए जीवन्त जगत को,
पावस धरा की प्यास बुझाता॥
सौरभ सुमन विटप फल देते,
नदियाँ नीर विकल जल निर्झर।
कानन काष्ट पर्यावरण रक्षक,
और अमित हितकारी गिरिवर॥
निरुद्देश्य नहीं है किंचित कुछ,
ग्रह नक्षत्र धरा और अम्बर।
सौम्य सुखद रात चाँदनी या,
दिवस का रवि स्वर्णिम कर॥
मानव महत पुत्र ईश्वर का,
सकल जीव इसके अनुगामी।
पहुँचा चारपाई से चाँद तक,
विद्या कला विज्ञान में नामी॥
मन-मंदिर में जलते दीपक की,
बिन स्नेह लौ हो रही धीमी।
कहीं बढ़ी सभ्यता-लता को,
खा न जाए द्वेष हिंसा कृमि॥
खोले गाँठ उलझन की मानस से,
हे प्रेम परस्पर संग-संग डोले।
जगदीश्वर की ऩिर्मल साधना,
जग सुन्दर कर हरिहर बोले॥
नहीं अनमोल रत्न यह जीवन,
गृह कारज में ही खप जाए।
यह अनुपम उपहार प्रभु का,
मिले पुनः या न मिल पाए॥
#विजयकान्त द्विवेदी
परिचय : विजयकान्त द्विवेदी की जन्मतिथि ३१ मई १९५५ और जन्मस्थली बापू की कर्मभूमि चम्पारण (बिहार) है। मध्यमवर्गीय संयुक्त परिवार के विजयकान्त जी की प्रारंभिक शिक्षा रामनगर(पश्चिम चम्पारण) में हुई है। तत्पश्चात स्नातक (बीए)बिहार विश्वविद्यालय से और हिन्दी साहित्य में एमए राजस्थान विवि से सेवा के दौरान ही किया। भारतीय वायुसेना से (एसएनसीओ) सेवानिवृत्ति के बाद नई मुम्बई में आपका स्थाई निवास है। किशोरावस्था से ही कविता रचना में अभिरुचि रही है। चम्पारण में तथा महाविद्यालयीन पत्रिका सहित अन्य पत्रिका में तब से ही रचनाएं प्रकाशित होती रही हैं। काव्य संग्रह ‘नए-पुराने राग’ दिल्ली से १९८४ में प्रकाशित हुआ है। राष्ट्रीयता और भारतीय संस्कृति के प्रति विशेष लगाव और संप्रति से स्वतंत्र लेखन है।
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