कर्तव्य धर्मों में तीन प्रमुख माने गए हैं – वैयक्तिक धर्म, समाज धर्म और राष्ट्र धर्म । ‘वैयक्तिक धर्म’ व्यक्ति की सुख – सुविधा और विकास हेतु होता है । ‘समाज धर्म’ में व्यक्ति और समाज की प्रगति की बात सोची जाती है, जबकि ‘राष्ट्र धर्म’ में व्यक्ति, समाज और राष्ट्र तीनों की उन्नति निहित होती है । अतः सिर्फ एक राष्ट्र धर्म पालन से शेष दोनों धर्मों का निर्वाह स्वतः होता रहता है । इसलिए तीनों धर्मों में राष्ट्र धर्म को सर्वाधिक महत्वपूर्ण माना गया है । अस्तु, तन, मन, धन, श्रम, साधन, व्यवसाय, विचार और धर्म – अध्यात्म के प्रसार द्वारा राष्ट्र की सेवा करना, उसकी सुख – शान्ति और समृद्धि – प्रगति बढाने का निष्ठापूर्वक प्रयास करना, यह राष्ट्र धर्म है । इसे आज का सबसे बडा धर्म कहा गया है । आजादी के अमृत महोत्सव के परिपेक्ष्य में इसका परिपालन और भी आवश्यक है क्योंकि हमें आजादी राष्ट्र धर्म के बलबूते ही मिली हैं ,जिसे हमें भूलना नही चाहिए ।”
गोपाल कौशल ” भोजवाल “
नागदा (मध्यप्रदेश)