जैविक आक्रमण के साथ तीसरे विश्व युध्द का शंखनाद चीन की ओर से हो चुका है। अमेरिका में इस कोरोना वायरस से 15 गुना ज्यादा खतरनाक वायरस तैयार किया जा रहा है। गुपचुप ढंग से अधिकांश देश ऐसी ही तैयारियों में जुटे हैं। इस युध्द में रक्षात्मक साधनों को एलोपैथिक उपचार के रूप में विकसित किया जा रहा है। अंग्रेजों के झंडे तले आधी दुनिया रह चुकी है सो अंग्रेज, अंग्रेजी और अंग्रेजियत का बोलबाला चारों ओर दिख रहा है। ऐसे में वैदिक उपचार पध्दतियां न केवल कारगर है बल्कि कवच के रूप में सिध्दस्त भी हैं। मगर विडम्बना तो यही है कि नक्कारखाने में तूती की आवाज सुनने वाला कोई होता ही नहीं है। देश की परम्परागत चिकित्सा पध्दतियों को एलोपैथी चिकित्सा माफियों से लेकर मैडसिन माफियों तक का सिंटीकेट धूल धूसित करने में जुटा है। वोट की राजनीति के दबाव तले सरकारें मौन वृत लिये बैठी हैं। संचार माध्यमों से कोरोना की तीसरी लहर, डेल्टा प्लस वेरिएंट तथा अन्य खतरनाक स्थितियों का प्रचार किया जा रहा है। यह सावधानी बरतने की सलाह से ज्यादा भयभीत करने का काम कर रहा है। महामारी के डर से सहमे लोग आज मानसिक तनाव में जीने लगे है। यही तनाव शरीर की प्रतिरोधक क्षमता को समाप्त करता है। दूसरी लहर के दौरान ही मीडिया पर दिनभर सलाह देने वाले एक महानुभाव ने तीसरी लहर की भविष्यवाणी कर दी थी। आश्चर्य होता है कि दिनभर चैनल्स की डिवेट में व्यस्त रहने वाले महानुभाव अपनी प्रयोगशाला में गहन अनुसंधान भी कर लेते हैं। आखिर यह सब कैसे संभव हो जाता है। हर व्यक्ति की अपनी कार्य करने की क्षमता होती है। डिवेट, अनुसंधान, मीडिया का टाइम स्ड्यूल, विभागीय कार्य, पद के दायित्व का निर्वहन जैसे सभी कारक एक साथ पूरे करने का गणित यदि देश के अन्य अधिकारियों को भी बता दिया जाये, तो निश्चय ही देश की विकास गति, गगन चुम्बी हो जायेगी। बात चल रही थी जैविक युध्द की। विश्व को बिना हथियारों से मारने वाले वायरस को सक्रिय करने वालों में विकासशील देश निरंतर प्रतिस्पर्धा कर रहे हैं, मगर उसके वैदिक उपचार पर शायद ही कोई काम कर रहा हो। जिस देश में वैदिक संस्कृति और संस्कारों ने जन्म लिया था, वहीं पर उसकी निरंतर उपेक्षा हो रही है, तो दूसरों से क्या अपेक्षा की जाये। अगर हम केवल आयुर्वेद और सिध्दा की अनुसंधान शालायें स्थापित करके अंग्रेजियत से बाहर निकल कर काम करें तो इस जैविक युध्द से सुरक्षात्मक कवच का निर्माण किया जा सकता है। इस अनुसंधान शाला में आदिवासियों के परम्परागत चिकित्सीय ज्ञान से लेकर ग्रामीण क्षेत्रों के सिध्दहस्त जानकारों तक को आमंत्रित किया जाये। सिध्दा के महारथियों को उनके वैदिक प्रयोगों के लिये वातावरण दिया जाये। यहां यह सावधानी अवश्य बरतना पडेगी कि वहां आगन्तुक विशेषज्ञों को कथित अंग्रेजियत के सामने हीन भावना का शिकार न होना पडे। क्षेत्रीय भाषा, वातावरण और संस्कारों के मध्य ही वे काम कर सकेंगे। सुपर ईगो पालने वाले अधिकारियों और कर्मचारियों के साथ उनका काम करना बेहद मुश्कित होगा। ऐसे विशेषज्ञों की लगन और एकाग्रता निश्चय ही केवल 6 छ: माह में ही परिणाम सामने ला देंगे। मगर ऐसी व्यवस्थायें की ही नहीं जायेगी। माफियों को तो मौतों पर जश्न मनाना है, नोट कमाना है। महामारी के दौर में भी विपक्ष का असहयोगात्मक रवैया और सरकारों का अपारदर्शी व्यवहार, लाशों पर राज्य करने की ललक से ज्यादा कुछ नहीं है। ऐसे में अनुचित है जैविक युध्द में सत्ता के पक्ष-विपक्ष की रस्साकशी। सहयोगात्मक रवैये ने तो शायद आत्मदाह कर लिया है तभी तो वह कहीं भी दिखाई नहीं देता। कश्मीर और बंगाल से उठने वाली कलुषित मानसिता को देश के अन्य भागों से भी हवा मिलने लगी है। दुश्मन का दुश्मन होता है दोस्त, का सिध्दान्त तेजी से लागू हो रहा है। घर में लगी आग को बुझाने से ज्यादा उसके ढंग पर टीका-टिप्पणी करके व्यवधान उत्पन्न करने वाले शायद राख में आशियाना तलाशने के मंसूबे पाले हैं। जब-जब प्रकृति के साथ खिलवाड हुआ, जीवन के सिध्दान्तों को भौतिकता की तराजू पर तौला गया और स्वयं को सर्वोपरि मान लिया गया, तब-तब विनाश का दावानल सामने आया। विकास के नाम पर विनाश की इबारत लिखने वाले तात्कालिक लाभ के लिए दूरगामी हानि को निरंतर अदृष्टिगत करते रहे। स्वयं को पूर्ण ज्ञानी मानने वालों ने परमाणु विस्फोटों से लेकर क्रतिम वर्षा तक के अनेक प्रयोग किये और आगे भी करने की दिशा में सक्रिय हैं। बिच्छू का मंत्र न जानने वाले जब सांप के बिल में हाथ डालते हैं तब उन्हें सत्य का आभाष होता है। कुछ ऐसा ही वर्तमान में भी हो रहा है। इस मानसिक दिवालियेपन को दूर किये बिना न तो जैविक युध्द में विजय पाई जा सकती है और न ही आने समय की विध्वंसकारी विभीषिका को रोका जा सकता है। इस बार बस इतना ही। अगले सप्ताह एक नये मुद्दे से साथ फिर मुलाकात होगी।
डा. रवीन्द्र अरजरिया