स्वर संगम

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क्यों तुम वेबजाह आ कर
दिलकी वीणा बजा देती हो।
और फिर कही खो जाती हो
क्या मिलता है ये करके।
न सुकून से खुद रहते हो
और न हमें रहने देते हो।
मुद्दत हो गई तुम्हें भूले
फिर क्यों बार बार आते हो।।

जिंदगी को साथ चाहिए था
तब तो साथ तुम आये नहीं।
अब क्यों बुझे दीपक और
सुने संगीत को बजा रहे हो।
जिसमें न कोई रोशनी और
न ही कोई सरगम बची है।
अब तो सब कुछ बेसुरा
मेरा संगीत हो चुका है।।

कभी समुद्र की ऊँची लहरों पर
प्यार मोहब्बत के गीत गाते थे।
और अपनी मेहबूबा के स्वरों को
दिलकी लहरों से टकराया करते थे।
उस किनारे से तुम आते थे
इस किनारे से हम आते थे ।
बीच में ही तेरे गीत और
मेरे साजो का संगीत बाजते थे।
और एक अनोखी मोहब्बत का
दृश्य बहते पानी में दर्शाते थे।।

जय जिनेंद्र देव
संजय जैन “बीना” मुंबई

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डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’

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