गुलाब हो या मेरा या
उसका तुम हो दिल।
तुम ही बतला दो अब
ये खिलते गुलाब जी।।
दिल में अंकुरित हो तुम।
इसलिए दिलकी डालियों,
पर खिलाते हो तुम।
गुलाब की पंखड़ियों कि,
तरह खुलते हो तुम।
कोई दूसरा छू न ले, इसलिए
कांटो के बीच रहते हो तुम।
पर प्यार का भंवरा कांटों,
के बीच आकर छू जाता है।
जिसके कारण तेरा रूप,
और भी निखार आता है।।
माना कि शुरू में कांटो से,
तकलीफ होती हैं।
जब भी छूने की कौशिश,
करो तो चुभ जाते हो।
और दर्द हमें दे जाते हो।
पर तुम्हें पाने की,
जिद को बड़ा देते हो।
और अपने दिलके करीब,
हमें ले आते हो।।
देखकर गुलाब और,
उसका खिला रूप।
दिलमें बेचैनियां बड़ा देता हैं
और मुझे पास ले आता है।
और रातके सपनोसे निकालकर।
सुबह सबसे पहले,
अपने पास बुलाता है।
और अपना हंसता खिल
खिलाता रूप दिखता है।।
मोहब्बत का एहसास,
कराता है गुलाब।
महफिलों की शान,
बढ़ाता है गुलाब।
शुभ अशुभ में भी,
भूमिका निभाता है गुलाब।
तभी तो फूलदिन भी,
मन वाता है गुलाब।
इसलिए तो दिलोंजान से,
चहाते हैं हम गुलाब।।
जय जिनेंद्र देव
संजय जैन (मुम्बई)