नई शिक्षा नीति के चक्रव्यूह में हिन्दी

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चकित हूँ यह देखकर कि राष्ट्रीय शिक्षा नीति- 2020 में संघ की राजभाषा या राष्ट्रभाषा का कहीं कोई जिक्र तक नहीं है. पिछली सरकारों द्वारा हिन्दी की लगातार की जा रही उपेक्षा के बावजूद 2011 की जनगणना रिपोर्ट के अनुसार आज भी देश की 53 करोड़ आबादी हिन्दी भाषी है. दूसरी ओर अंग्रेजी बोलने वालों की संख्या दो लाख साठ हजार, यानी मात्र .02 प्रतिशत है. यानी, देश के 99.08 प्रतिशत भारतीय भाषाएं बोलने वालों पर .02 प्रतिशत लोग शासन कर रहे हैं और उनमें भी लगभग आधे लोग सिर्फ एक भाषा बोलते हैं जिसे हमारा संविधान राजभाषा कहता है.
राष्ट्रीय शिक्षा नीति के अध्याय 4.11 के अनुसार “जहाँ तक संभव हो, कम से कम ग्रेड-5 तक लेकिन बेहतर यह होगा कि यह ग्रेड-8 और उससे आगे तक भी हो, शिक्षा का माध्यम, घर की भाषा/मातृभाषा/स्थानीय भाषा/क्षेत्रीय भाषा होगी. इसके बाद घर/स्थानीय भाषा को जहां भी संभव हो भाषा के रूप में पढ़ाया जाता रहेगा. सार्वजनिक और निजी दोनो तरह के स्कूल इसकी अनुपालना करेंगे.”

यहाँ चिन्ताजनक दो बातें हैं. पहली, ग्रेड-5 या अधिक से अधिक 8 तक शिक्षा के माध्यम के रूप में घर की भाषा या मातृभाषा या स्थानीय भाषा या क्षेत्रीय भाषा लागू करने का प्रस्ताव. अब यदि इसी आलोक में हम हिन्दी क्षेत्र के किसी हिस्से को ले लें. मसलन् यदि हमें बिहार के छपरा जिले के किसी गांव में स्थित स्कूल की शिक्षा के माध्यम- भाषा का चुनाव करना हो तो हमारे सामने गंभीर धर्मसंकट खड़ा हो जाएगा. किसी निर्णय पर पहुंचना हमारे लिए बहुत कठिन होगा क्योंकि वहाँ के घर की भाषा या मातृभाषा या स्थानीय भाषा या क्षेत्रीय भाषा निर्विवाद रूप से भोजपुरी कही जाएगी. दूसरी ओर इस पूरे क्षेत्र में अबतक प्राथमिक शिक्षा का माध्यम हिन्दी रही है इसलिए बड़ी संख्या में लोग हिन्दी के पक्ष में भी खड़े होंगे. यही स्थिति समूचे हिन्दी भाषी क्षेत्र की होगी. इसका कारण यह है कि पूरा हिन्दी क्षेत्र, जिसे हमारे संविधान ने हिन्दी भाषी क्षेत्र के रूप में रेखांकित करते हुए ‘क’ क्षेणी में रखा है, वहाँ कि स्थिति द्विभाषिकता की है. इस क्षेत्र के सभी लोग अपने घरों में भोजपुरी, मगही, अवधी, ब्रजी, छत्तीसगढीं, हरियाणवी, बुंदेली, राजस्थानी आदि जनपदीय भाषाएं बोलते हैं किन्तु लिखने का सारा औपचारिक काम हिन्दी में करते हैं. इस अर्थ में समस्त हिन्दी भाषी क्षेत्र की स्थिति अन्य भाषा- भाषी क्षेत्रों से भिन्न है. हिन्दी क्षेत्र की भोजपुरी, छत्तीसगढ़ी, राजस्थानी, अवधी, मगही आदि अनेक बोलियां पहले से ही हिन्दी से अलग होकर संविधान की आठवी अनुसूची में शामिल होने की मांग कर रही हैं. जहाँ राष्ट्र की एकता और अखंडता की रक्षा के लिए, राष्ट्र की राजभाषा हिन्दी को विखंडन से बचाने की दिशा में कुछ प्रभावी कदम उठाने की उम्मीद थी, वहाँ राष्ट्रीय शिक्षा नीति ने हिन्दी के संबंध में किसी तरह का स्पष्ट निर्देश न देकर, हिन्दी परिवार को विखंडन की आग में झोंकने का काम किया है.

दूसरा मुद्दा त्रिभाषा फार्मूले को लेकर है. हमारे संविधान द्वारा प्रस्तावित त्रिभाषा फार्मूला एक ऐसा प्रावधान है जिसके साथ हिन्दी क्षेत्र ने हमेशा से बेईमानी की है. संविधान का संकेत था कि हिन्दी क्षेत्र के लोग हिन्दी और अंग्रेजी के साथ दक्षिण की कोई एक भाषा अपनाएंगे. किन्तु हिन्दी क्षेत्र के लोगों ने हिन्दी और अंग्रेजी के साथ उर्दू या संस्कृत को अपना लिया और खुद दक्षिण वालों से हिन्दी पढ़ने की अपेक्षा करते रहे. यह गलत था. नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति में त्रिभाषा फार्मूले की बात तो बार- बार की गई है किन्तु यहाँ भी त्रिभाषा से क्या तात्पर्य है- इस संबंध में कुछ भी स्पष्ट नहीं है. यदि गुजरात के लोग गुजराती और अंग्रेजी के साथ हिन्दी न पढ़कर संस्कृत, मराठी, उर्दू या जर्मन पढ़ें तो भी उसे राष्ट्रीय शिक्षा नीति के त्रिभाषा फार्मूले का उलंघन नही माना जाएगा. राष्ट्रीय शिक्षा नीति के अध्याय 4.13 में स्पष्ट कहा गया है कि, “तीन भाषा के इस फार्मूले में काफी लचीलापन रखा जाएगा और किसी भी राज्य पर कोई भाषा थोपी नहीं जाएगी.” उल्लेखनीय है कि थोपी जाने का आरोप हमेशा हिन्दी को लेकर ही लगता रहा है.
इस राष्ट्रीय शिक्षा नीति में ग्रेड-5 या बेहतर होगा कि ग्रेड-8 तक तो मातृभाषा या घर की भाषा या स्थानीय भाषा या क्षेत्रीय भाषा के माध्यम से यथासंभव शिक्षा देने प्रस्ताव है किन्तु, उसके बाद अघोषित रूप से अंग्रेजी माध्यम अपनाने की ओर संकेत है. प्रश्न यह है कि जब अभिभावक यह देख रहा है कि ग्रेड-8 के बाद अंग्रेजी का माध्यम अपनाना ही है, तो पहले से ही अंग्रेजी माध्यम क्यों न अपना लिया जाय ? अभिभावक यह भी देख रहे हैं कि उनके बच्चे चाहे जितनी भी भारतीय भाषाएं सीख लें किन्तु यदि एक विदेशी भाषा अंग्रेजी नहीं जानते हैं तो उन्हें कोई नौकरी नहीं मिलने वाली है. यूपीएससी से लेकर चपरासी तक की नौकरियों में भी अंग्रेजी का दबदबा है. सुप्रीम कोर्ट से लेकर 25 में से 21 हाई कोर्टों में एक भी भारतीय भाषा का प्रयोग नहीं होता. ऐसी दशा में अपने बच्चों को अंग्रेजी न पढ़ाने की मूर्खता वे कैसे कर सकते है ?

इतना ही नहीं, सरकारी विद्यालयों में तो एक सीमा तक सरकार के सुझाव पर अमल किया भी जा सकता है किन्तु निजी क्षेत्र के विद्यालयों में भला कैसे लागू किया जा सकता है ? जहां शिक्षा का मुनाफे के लिए सिर्फ व्यापार होता है. उनका तो धंधा ही अंग्रेजी के बल पर फल फूल रहा है. किन्तु हमें याद रखनी चाहिए कि मासूम बच्चों से उनकी मातृभाषा छीन लेना भीषण क्रूरता है जिसके लिए इतिहास हमें कभी माफ नहीं करेगा.
राष्ट्रीय शिक्षा नीति में कहा गया है कि, “प्राचीन और सनातन भारतीय ज्ञान और विचार की समृद्ध परंपरा के आलोक में यह नीति तैयार की गई है.” इसमें तक्षशिला, नालंदा, विक्रमशिला आदि प्राचीन संस्थानों के साथ ही चरक, शूश्रुत, आर्यभट्ट, वाराहमिहिर, भास्कराचार्य, ब्रह्मगुप्त, चाणक्य, पाणिनि, पतंजलि, नागार्जुन, गौतम, शंकरदेव, मैत्रेयी, गार्गी, थिरुवल्लुवर आदि का भी गुणगान किया गया है. इसी तरह अनुसंधान के क्षेत्र का जिक्र करते हुए भारत, मेसोपोटामिया, मिस्र, चीन, ग्रीस से लेकर आधुनिक सभ्यताओं, जैसे संयुक्त राज्य अमेरिका, जर्मनी, इजराइल, दक्षिण कोरिया और जापान की प्रगति का उल्लेख है किन्तु इन सबको अपना आदर्श और लक्ष्य तो बनाया गया है, पर इस बात की ओर ध्यान नहीं दिया गया है कि ये सारी उपल्ब्धियाँ चाहे भारतीय हों, या पाश्चात्य, अपनी भाषाओं में पढ़कर अर्जित की गईं हैं. व्यक्ति चाहे जितनी भी भाषाएं सीख ले, किन्तु सोचता है अपनी भाषा में. दूसरे की भाषा में कभी कोई मौलिक चिन्तन नहीं हो सकता. आज भी दुनिया के सभी विकसित देश अपनी भाषा में ही पढ़ते हैं. दूसरे की भाषा में पढ़कर सिर्फ नकलची पैदा होते हैं. हमारे बच्चे दूसरे की भाषा में पढ़ते हैं, उसे सोचने के लिए अपनी भाषा में ट्रांसलेट करते हैं और लिखने के लिए फिर उन्हें दूसरे की भाषा में ट्रांसलेट करना पड़ता है. इस तरह हमारे बच्चों के जीवन का बड़ा हिस्सा दूसरे की भाषा सीखने में चला जाता है.
हमारे संविधान की प्रस्तावना में ही समानता, स्वतंत्रता और बंधुत्व की बात कही गई है. व्यक्ति की प्रतिष्ठा तथा अवसर की समानता उसका बुनियादी लक्ष्य है. राष्ट्रीय शिक्षा नीति में भी इसका उल्लेख है और कहा गया है कि, “इस कार्य में ऐतिहासिक रूप से हाशिए पर रह रहे समुदायों, वंचित और अल्प-प्रतिनिधित्व वाले समूहों पर विषेष ध्यान दिए जाने की जरूरत होगी.” ( पृष्ठ-5) और घोषित किया गया है कि, “गुणवत्तापूर्ण शिक्षा तक पहुँच को प्रत्येक बच्चे का मौलिक अधिकार माना जाना चाहिए.”

दरअसल, यह सपना तो भारत के हर नेक नागरिक का होना चाहिए. हमारे देश में पुलिस- थाने और कोर्ट तो सबके लिए समान रूप से खुले हैं किन्तु शिक्षण संस्थान क्यों नहीं ? दरअसल पूरी शिक्षा सबके लिए समान और मुफ्त होनी चाहिए. तभी सुदूर गावों में दबी हुई प्रतिभाओं को भी खिलने का और मुख्य धारा में शामिल होने का अवसर मिल सकेगा. क्यों हमारे देश में भरपूर मात्रा में केन्द्रीय विद्यालयों जैसे विद्यालय नहीं बन सकते ? कुछ वर्ष पहले इलाहाबाद हाई कोर्ट ने एक आदेश दिया था कि राष्ट्रपति से लेकर चपरासी तक, जो भी सरकारी खजाने से वेतन पाते हैं उनके बच्चे अनिवार्य रूप से सरकारी विद्यालयों में ही पढ़ेंगे. यदि हाई कोर्ट के उक्त आदेश पर अमल किया गया होता तो शिक्षा की दशा बदलते देर नहीं लगती. हमारे पड़ोस के देश भूटान में भी निजी क्षेत्र के विद्यालय हैं किन्तु उनमें वे ही बच्चे प्रवेश लेते है जिनका प्रवेश सरकारी विद्यालयों में नही हो पाता. इसका कारण सिर्फ यही है कि वहाँ राज परिवार के बच्चे भी सरकारी स्कूलों में ही पढ़ते हैं. इसी तरह चीन की यात्रा करके लौटने वाले लोग बताते हैं कि चीन के गांवो में सबसे सुन्दर भवन उस गाँव का विद्यालय होता है.

राष्ट्रीय शिक्षा नीति के अध्याय 22.5 व 22.6 में भारत में लुप्त हो रही भाषाओं पर चिन्ता व्यक्त की गई है और उन्हें बचाने के लिए ठोस कदम उठाने पर बल दिया गया है. यह स्वागत योग्य कदम है, किन्तु गीता का कथन “जातस्य हि ध्रुवो मृत्युम्.” सब पर समान रूप से लागू होता है. किसी भी सांसारिक वस्तु या व्यक्ति को मरने से नहीं रोका जा सकता. इस संबंध में महात्मा गांधी का विचार स्मरणीय है. गांधी जी ने कहा है, “जो वृत्ति इतनी वर्जनशील और संकीर्ण हो कि हर बोली को चिरस्थायी बनाना और विकसित करना चाहती हो, वह राष्ट्र-विरोधी और विश्व-विरोधी है. मेरी विनम्र सम्मति में तमाम अविकसित और अलिखित बोलियों का बलिदान करके उन्हें हिन्दुस्तानी ( भाषा) की एक बड़ी धारा में मिला देनी चाहिए. यह आत्मोत्सर्ग के लिए की गई कुर्बानी होगी, आत्महत्या नहीं.” ( यंग इंडिया, 27 अगस्त 1925)

ऐसी दशा में जिस हिन्दी ने दुर्दिन में भी हमारे देश की एकता और अखंडता को बनाए रखा, जिसके माध्यम से हमने आजादी की लड़ाई लड़ी, जिसे हमारे देश के रहनुमाओं ने ‘राजभाषा’ का दर्जा और ‘राष्ट्रभाषा’ का सम्मान दिया, उसे बचाने के लिए, उसकी समृद्धि के लिए इस राष्ट्रीय शिक्षा नीति में जरूर प्रावधान होने चाहिए थे. राष्ट्रभाषा किसी देश की जबान होती है. खेद है कि इस राष्ट्रीय शिक्षा नीति में ‘राजभाषा’ या ‘राष्ट्रभाषा’ शब्द का उल्लेख तक नहीं है.

#प्रो. अमरनाथ

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डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’

आपका जन्म 29 अप्रैल 1989 को सेंधवा, मध्यप्रदेश में पिता श्री सुरेश जैन व माता श्रीमती शोभा जैन के घर हुआ। आपका पैतृक घर धार जिले की कुक्षी तहसील में है। आप कम्प्यूटर साइंस विषय से बैचलर ऑफ़ इंजीनियरिंग (बीई-कम्प्यूटर साइंस) में स्नातक होने के साथ आपने एमबीए किया तथा एम.जे. एम सी की पढ़ाई भी की। उसके बाद ‘भारतीय पत्रकारिता और वैश्विक चुनौतियाँ’ विषय पर अपना शोध कार्य करके पीएचडी की उपाधि प्राप्त की। आपने अब तक 8 से अधिक पुस्तकों का लेखन किया है, जिसमें से 2 पुस्तकें पत्रकारिता के विद्यार्थियों के लिए उपलब्ध हैं। मातृभाषा उन्नयन संस्थान के राष्ट्रीय अध्यक्ष व मातृभाषा डॉट कॉम, साहित्यग्राम पत्रिका के संपादक डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’ मध्य प्रदेश ही नहीं अपितु देशभर में हिन्दी भाषा के प्रचार, प्रसार और विस्तार के लिए निरंतर कार्यरत हैं। डॉ. अर्पण जैन ने 21 लाख से अधिक लोगों के हस्ताक्षर हिन्दी में परिवर्तित करवाए, जिसके कारण उन्हें वर्ल्ड बुक ऑफ़ रिकॉर्डस, लन्दन द्वारा विश्व कीर्तिमान प्रदान किया गया। इसके अलावा आप सॉफ़्टवेयर कम्पनी सेन्स टेक्नोलॉजीस के सीईओ हैं और ख़बर हलचल न्यूज़ के संस्थापक व प्रधान संपादक हैं। हॉल ही में साहित्य अकादमी, मध्य प्रदेश शासन संस्कृति परिषद्, संस्कृति विभाग द्वारा डॉ. अर्पण जैन 'अविचल' को वर्ष 2020 के लिए फ़ेसबुक/ब्लॉग/नेट (पेज) हेतु अखिल भारतीय नारद मुनि पुरस्कार से अलंकृत किया गया है।