हिन्दी की अस्मिता पर प्रहार करने वाले हिन्दी के अपने

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यह बहुत बड़ी विडंबना है कि हिन्दी को तोड़ने वालों में हिन्दी के अपने ही लोग हैं। भोजपुरी के कुछ समर्थकों का यह विचार है कि हिन्दी भाषा से अलग होने पर ही भोजपुरी भाषा और संस्कृति का विकास हो पाए गा। वास्तव में यह उनका भ्रम है। भाषाविज्ञान की दृष्टि से भाषा और बोली में कोई अंतर नहीं है और यह भी सही है कि बोली की अपनी सामाजिक-सांस्कृतिक अस्मिता होती है किंतु वह भाषा की अपेक्षा सीमित हो सकती है। भोजपुरी का इतिहास हजारों वर्ष पुराना है और इसका अपना क्षेत्र भी रहा है। लेकिन समाज के ऐतिहासिक विकास के साथ-साथ कोई भी बोली भाषा का दर्जा प्राप्त कर सकती है और कोई भी भाषा बोली का। 14वीं शताब्दी से 18वीं शताब्दी तक भाषा के रूप में ब्रज भाषा का विस्तार लगभग पूरे देश में था और इसका साहित्य काफी समृद्ध है और यही बात अवधी, मैथिली, मेवाड़ी (राजस्थानी) आदि भाषाओं पर भी लागू होती है। समय के अंतराल में ये भाषाएँ बोली के रूप में प्रयुक्त होने लगीं।

भाषा कभी-कभी अपनी अस्मिता किसी अन्य भाषा के साथ जोड़ देती है और वह उसकी बोली बन जाती है। मध्य काल में ब्रज भाषा साहित्यिक संदर्भ में भाषा के रूप में प्रतिष्ठित थी, किंतु आज खड़ी बोली हिन्दी की आधार भूमि है और ब्रज भाषा हिन्दी की बोली के स्तर पर आ गई है। यही स्थिति राजस्थानी, अवधी, मैथिली और खड़ीबोली पर भी लागू हो सकती है। वस्तुत: जब कोई बोली जातीय पुनर्गठन की सामाजिक प्रक्रिया के दौरान सांस्कृतिक पुनर्जागरण, राजनैतिक पुनर्गठन और आर्थिक पुनर्व्यवस्था के कारण अन्य बोलियों की तुलना में अधिक महत्व प्राप्त कर लेती है तो वह भाषा का रूप ले लेती है। यह बोली अपने व्यवहार-क्षेत्र को पार कर क्षेत्र-निरपेक्ष और सार्वदेशिक हो जाती है। इसका प्रयोग-क्षेत्र बढ़ जाता है और मानकीकरण की प्रक्रिया में उसमें आंतरिक संसक्ति (कोहिज़न) आने लगती है।

लेकिन आज के संदर्भ में हिन्दी और उसकी बोलियाँ एक-दूसरे को परिपुष्ट और समृद्ध कर रही हैं। बोलियाँ हिन्दी की समृद्धि में सहयोग दे रही हैं। हिन्दी के विकास में खड़ीबोली के साथ-साथ भोजपुरी, अवधि, मैथिली, राजस्थानी आदि बोलियों का विशेष योगदान है। बोलियों के आधुनिकीकरण और विकास में हिन्दी भी महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही हैं। भाषा और बोली का सहसंबंध होता है और इसी कारण भोजपुरी की अस्मिता पर चिंता करना बेमानी है वरन बहुभाषी देश में इस सहसंबंध से इसका महत्व विशेष रूप से बढ़ जाता है।

यहाँ यह स्पष्ट करना असमीचीन न होगा कि भाषा में ऐतिहासिक परंपरा, जीवंतता, स्वायत्तता और मानकता ये चार लक्षण पाए जाते हैं। बोली में पहले तीन लक्षण तो होते ही हैं, किंतु मानकता लक्षण प्राय: नहीं होता। भाषा अपेक्षाकृत अधिक मानक और आधुनिक होती है जबकि बोली में सापेक्षतया अधिक विकल्प मिलते हैं। इसीलिए भाषा विभिन्न बोलियों में संपर्क भाषा का काम करती है। इसमें शब्दावली और वाक्य-संरचना में प्राय: एकरूपता मिलती है जबकि बोलियों में मानकता न होने के कारण प्राय: अनेकरूपता के दर्शन होते है। इस लिए यह प्रश्न उठ सकता है कि भोजपुरी में दक्षिणी, उत्तरी, पश्चिमी और नागपुरिया भोजपुरी क्षेत्रों में खरवार, शाहबादी, छपरिया, गोरखपुरी, सरवरिया, पूरबी, बनारसी, सदानी आदि विभिन्न रूपों के कारण किसे मानक माना जाए। यह भी उल्लेखनीय है कि आज के भूमंडलीकरण के युग में अंग्रेज़ी और वह भी अमेरिकन अंग्रेज़ी के बाद अन्य भाषाओं की तुलना में हिन्दी आगे है, क्योंकि इसका क्षेत्र विस्तृत है और वह है इसकी मानकता के कारण। भाषा-बोली के संबंध में मैंने अन्य स्थलों पर विस्तार से लिखा है।

इसमें संदेह नहीं कि भोजपुरी के जनपद में मातृबोली के रूप में भोजपुरी बोलने वालों की संख्या बहुत अधिक है, लेकिन ये लोग हिन्दी का प्रयोग स्वाभाविक रूप से मातृभाषा के रूप में करते हैं। वस्तुत: बहुभाषी भारत में मातृभाषा की संकल्पना एकभाषी स्थिति की संकल्पना से काफी जटिल है। मातृभाषा पालने की भाषा होती है और व्यक्ति का संज्ञानात्मक बोध सबसे पहले इसी भाषा से होता है। दूसरा, उस व्यक्ति की जातीय अस्मिता संस्थागत रूप से से जुड़ जाती है जिससे भाषायी चेतना के सहारे वह हम-वे के बोध से बंध जाता है। मातृभाषा की यह संकल्पना एकभाषी स्थिति पर तो लागू होती है, किंतु भारत के बहुभाषी देश होने के कारण यह संकल्पना अलग हो जाती है और वह उसपर पूरी तरह लागू नहीं होती। बहुभाषी भारत में हिन्दी एक ऐसा महा जनपद है जिसमें व्यक्ति की पालने की भाषा तो भोजपुरी जैसी मातृबोली है किंतु जातीय अस्मिता के लिए वह महा जनपद की भाषा अर्थात हिन्दी से जुड़ जाता है। इसी कारण भारतेन्दु हरिश्चंद्र, देवकीनंदन खत्री, श्याम सुंदर दास, प्रेम चंद, जय शंकर प्रसाद, रामचंद्र शुक्ल, राहुल सांकृत्यायन, पांडेय बेचन शर्मा उग्र, हजारी प्रसाद द्विवेदी आदि अनेक साहित्यकारों की प्रथम भाषा अर्थात मातृबोली भोजपुरी रही, लेकिन उनकी जातीय अस्मिता की भाषा सदैव हिन्दी रही है। इन साहित्यकारों का नाम हिन्दी के महिमा मंडल में ही दिखाई देते हैं।

इस लिए भारत की एकता एवं अखंडता के तथा भाषायी सौहार्द्र और हिन्दी के विकास पर विचार करते हुए अन्य भाषाओं को संविधान की अनुसूची में रखना भारत राष्ट्र के लिए घातक सिद्ध होगा। भारत के सभी साहित्यकारों, भाषाविदों, राष्ट्र-प्रेमियों, हिन्दी प्रेमियों, प्रबुद्ध नागरिकों और भोजपुरी प्रेमियों से निवेदन है कि वे हमारे लोकप्रिय प्रधान मंत्री, गृह मंत्री, अन्य माननीय मंत्रियों, सभी दलों के सांसदों से अपील करें कि वे इस बारे में पुनर्विचार करें ताकि भारत को इस भाषायी वैमनस्य और कटुता से बचाया जा सके।

प्रो.कृष्ण कुमार गोस्वामी

महासचिव एवं निदेशक,

विश्व नागरी विज्ञान संस्थान, गुड़गाँव-दिल्ली

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