नीरज त्यागीग़ाज़ियाबाद ( उत्तर प्रदेश )
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कुछ सपने जीवन में ऐसे थे,जो अधूरे रह गए।
जैसे किताबो के पन्ने बिना पढ़े ही मुड़े रह गए।।
सपने ऐसे भी थे जो पूरा होने के लिए मुझ से लड़ गए।
जैसे किताबो के मुड़े पन्ने हवाओ से खुद ही खुल गए।।
हर एक अपने अपने तरीके से मेरा जीवन चलाता रहा।
जैसे किताब को हर एक अपने हिसाब से उठाता रहा।।
हर एक रिश्ते के हर पहलू में मेरा झुकना जरूरी था।
जैसे किताब को हर एक अपने हिसाब से पढ़ता रहा।।
जीवन मे बस सपने मेरे अपने थे जो अधूरे रह गए।
जैसे किताब बिना किसी के पढ़े ही एक कोने में रह गयी।।
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