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कहाँ गये सब
छोड़ के इसे
आज अकेला बंजर है ।
ना कोई पंछी
है साथी
ना गगन में
घन बरसाती ।
दुर्बलता से
सहता है नित,
आज हृदय में थर थर है।
अब बसंत की
बात कहाँ
बाजों से
बरबाद जहाँ
तितर- भीतर
होगये पंछी
देख अजब सा मंज़र है ।
हरियाले पर्वत
थे सारे
फल फूलों को
साज सँवारे
किसने इनको
लूट लिया है
किसने भौंखा खंजर है ।
पत्ता पत्ता
सोना सोना
जितना पाया
उतना बौना
मृगतृष्णा में
बना है मृग नर
अब उसका मन पत्थर है।
देखो ये
किसकी है माया
धीरे धीरे
उठता साया
वो ढोता
टीलों के आँसू
अब अंदर से पंजर है ।
आज अकेला बंजर है ।।
#श्रीमन्नारायणाचार्य “विराट”
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